“बरखा बांवरी”
मचल मचल कर वह बांवरी,यूं बरसने आई है
ढक गया नीलनभ भी,धुंध श्याम छवि लाई है।
खो गईं डालियां, कलियां कोमलांगी झड गई हैं।
प्रीत अनोखी,धरा-गगन की,रास रंग की छाई है।
कतारों मे चल रहीं,रंगीली जुगनुओं सी गाडिय़ां ।
सरसराती, कभी सरकती, झुनझुनाती पैजनियां।
देखो कैसी रुनकझुनक , मस्ती संग ले आई है ।
सब पूछ रहे रसरजिंत हो, यह क्यों ऐसेे मदमायी है?
नांच रहा कोई, ऐसा कौन रंग बरसाई है
छुप रहा कोई-पत्तियों तले ना ये जा पाई है
गा रहा कोई- यूूं राग तरिंगिनी बन यह आई है
रोको न इसके कदम-ले जाने इसे आई पुरवाई है।
कडकती बदली से चुरा, श्यामल चुनरी लाई है!
नटखट नवेली चुपके से बिजली बिंदी चमकाई है
उडते हुये परिंदों के पंखों मे जा, यहसमाई है
यहाँ छमछम यह करती, वहाँ रुनझुन बरसाती है
रवि किरणों के संग कहीं ,अधीर हो मुस्काती है
कहीं लहरा कर चदरिया नीली , सपने कई सजाती है
हरी बनी वसुधा पर फिर रसीली फुहार बरसाती है।
कहीं मचलती, कभी उछलती, पीहर से यह आई
थिरकती ,
मुदित मन -कुसुमी तन से,रूक रुक कर है किलकारती
।
कहती सबसे कानों में,”लाई पिया-स्नेह भरा आंचल अपार,
छींट छींट, बांट बांट कर, सजा दूंंगी मैं सौगात अम्बार
घर आंगन उन सबका,देख रहे जाने कबसे जो बाट मेरी
खेतों और खलिहानों मेंं मिल, सौभाग्य रोप रहे हैं क्यारी !”
सहसा क्या हुआ इसे, धीरे से फैला कर श्यामल ओढनी
“अगले बरस फिर आऊँगी “,कह नयी दिशा को वह चल दी।.
शमा सिन्हा