जय जय मधुरस संत्रीप्ति

”         जय जय मधुरस संतृप्ती “

रसीली मिठाई मुझे बहुत पसंद है। मीठे व्यंजन की चाहत सभी को होती है। किसी किसी को बहुत ज्यादा होती है। उन मीठे व्यंजनों को पसंद करने वालो में मै भी हूँ। शायद मेरे बत्तीसो दाँत और जिव्हा ,इनके अथक प्रेम अनुयायी हैं। खाने के पहले, खाने के बाद और बीच-बीच में भी मुझे मीठा खाने की इच्छा होती है। खासकर अगर रसीली मिठाई तो अमृत सी है। मैंने अमृत पान नहीं किया किन्तु सत् चित् आनंद ईश्वर है तो इसके पारण से भी कुछ वैसी ही अनुभूति मुझे मिलती है। अपनी इन्हीं भावनाओं को मैने “रसीली मिठाई “को समर्पित किया है।

तासीर उसकी होती मधुर, वह है रसीली मनभावन मिठाई,
रंग जाता मन पूर्ण, हो जैसे नैसर्गिक कथा पावन कोई।
छुधा तृष्णा संतुष्टी पश्चात, वह अचानक दे जाये अगर दिखाई,
रसीदें गुलाब जामुन, जलेबी, चन्द्रकला, उसके है रिश्तेदार भाई,
अनोखी मीठी अनुभूति, नयनों ने सरगम के साथ पिलाई ,
जैसे पूर्ण चंद्र देख,मधुर राग में पुकार चकोर ने लगाई,
ज़बान हमारी, बिना चखे ही, रस के सागर में डुबकी लगाई,
कंठ-हृदय-उदर पथ,पुष्प पंखुडियां केसर सुगंध ऐसी पसराई,
स्वाद-कलिकाये, दृष्टि निर्गत,असीम नैसर्गिक संतुष्टी भरमाई ।
हुआ जब आलिंगन जिह्वा का रस-बिंदुओं से, बजाई बहार ने भी अमृत रंगी शहनाई ,
आत्मा यू आनन्दित हो गई जैसे माखन मिश्री से कृष्ण कन्हाई!
तनिक सचेत रहना, चाहतेअगर बढती रहे सरसता की लमबाई,
मिष्टी रस सदा पारण करना ,सतत बनी रहेगी कंठों की तराई!

शमा सिन्हा 7-11-'20

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