दिन के उजाले,जाने कब लग गई आखें
बीत गए अनजाने मे ही,कई एक घंटे ।
पूछा उन्हे देख सामने,”आ गए आप?”
नीले डबल ब्रेस्ट सूट मे वैसे ही जच रहे थे,
जैसे विशेष अवसर पर सज कर खड़ होते थे।
सफेद दीवारो से घिरा था वह छोटा सा आगन,
मै एक तरफ खड़ी थी,उनका था सारा प्रांगण ।
बहुत उमंगित वे दीख रहे थे,मै थी असमंजस में,
“अब सब ठीक हो जाएगा।”सहसा क्यों कहा उन्होंने।
जीवन गुजर गया,हो गई थी हमारी सुबह की शाम
इसी आस पर चलती रही बनेगा सारा अधूरा काम।
नींद टूट गई सुनकर,अब तो सबकुछ बिखर चुका था
घर के नाम पर थी दिवाले,आंगनअंधेरा और खाली था।
चले गये वो छोड़ मुझे यूं,तोड़ रिश्ता चार दशक का,
मुड़कर ना पूछा मुझसे ,न ढाढस देने को इकबार देखा।
अब वो क्या ठीक करेंगे,”अब सब कुछ कैसे ठीक होगा?”
मै बैठी विचारो के उलझन मे,कदम किस ओर बढ़ाऊ,
“लुढ़क गये दो बूंद “तबही,मन को अब कैसे समझाऊ?