तुम ,मुझसे छुपकर थे खड़े हुए,
कलियों का सा झिझक ओढ़े हुये।
मै पौधों मे पानी डाल रही थी
चतुराई तुम्हारी निहार रही थी।
तुम्हे, पहले मैं पहचान ना पाई
लगा,लटकी है कोई कली मुरझाई
जागी उत्सुकता, सोचा सूखी पंखुड़ि गिरा दूं,
झुकी डाली को धोकर कुछ चमका दूं ।
चौक गई मै हाथ बढ़ा कर हौले से स्पर्श जो किया,
मखमली मीठी हसीं में कोमलता ने अट्टहास किया!
“अभी नही भुरझाई ,अभी तो बन ही रही कली नवेली
कल आना देखने मुझको, लाउंगी नायाब सुर्ख लाली!
तन मन सब रंग डालूंगी, बूझाउंगी कुछ ऐसी पहेली!
बाकी के सब रंग फीके होंगे, मै ही एक मनाउंगी होली !
रात भर न मै सोई,पौ फटने का इंतजार रही करती,
आकाश हुआ गलाम गुलाब का,पहुँच गई पास चलती!
वह खडा रंग रगींला था , इंद्रधनुष सा सतरंगी सजीला
फैलाकर कर बाहों का आंगन,घेरे उसे था किला कटिला !
मै क्यों डर कर भागूं वह तो बस खिला पुष्प सलोना था
कैची की छोटी धार पर, कट मेरी मेज़ पर उसे सजना था
वह देखो फूलदान में है खड़ा,अहंकार से अब भी है अढ़ा!
रंग अब भी मखमल जड़ा, पत्ति-कांटो से फिर भी है घिरा!
बदलता नही स्वभाव किसी का,रंक हो या हो राजा बड़ा
व्यंग बाण लेकर धनुष पर ,देखो बबूल पत्थर पर चढ़ा!