कदम जब भी उढते है,
और रास्ते पर लोग दीखते हैं।
जाने क्यों, भ्रम सा हो जाता है,
उम्मीद से, आंखें आगे तकने लगती।
न चाहते, ख्वाहिश सी जाग जाती है।
फिर से बरबस, ईक बेचैनी छाती है।
गुजरते काफिले में ढूंढने लगती हैं,
आस संजोए दो खुली पुतलियाँ,
खो गए अचानक जो, उन्हीं को!
बिडम्बना, होठों को सीलती है।
रौशनी को, बदली ढाक जाती है।
आकांक्षा बरबस शीथिल होती हैं।
आस को, वह फिर से समझाती है।
उतना ही सच मानो, जितना तुम्हे हुआ हासिल,
वक्त के पहले और हक से ज्यादा,
नहीं मिलता कोई साथ।
सपनों को उम्मीद से, तो सब सजाते है,
पर साकार होते उन्हें कुछ ही ने देखा है।