“जरा बचके!”

हुआ समय मिलन सूर्य -संध्या का,
तारों को बांंहों में समेट,छा रहा अंधेरा।
“जरा बचके रखना कदम मेरे सजना!”
दे रहा आवाज, दूूर से मल्लाह नांव का।

पता नही है दूर कितना अपना वह किनारा
भला यही,मध्यम धारा के संग बहते रहना!
“जरा बचके दूर,नदी के भंवर से रहना!
पतवार पकड़,दिवास्वप्न में तुम ना खोजाना!”

यह सफर है,बस हिसाब लेन-देन का,
“जरा बचके करना! है व्यापार कर्म का,
यह रिश्ता है बस अधिक-शेष गणना का!
बेखबर!फिसले ना यह अनमोल नगीना सस्ता!!!”

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