कहूं किससे?

इस हाल को करूं बयां किससे ? इस उम्र में सुकून मिले जिससे।। जोड़ कर तिनका बनता घोंसला। बारिश में  रखने को हौसला ।। अगर परिंदा सदा उड़ता ही रहे। भींगीं पलकें कभी खुल ना पायें ।। लोगों कहते,”रात बितालो मेरे यहां!” पर रात भर में कटेंगी न सारी सांसें वहां? और ग़र पंख उसके सदा भींगते ही रहें। चौखटों पर, औरों के फुदकता फिरे।। ऐसे घोंसले का क्या उसे  है फायदा । जिसके रहते भी वंह रहे सुकून से जुदा? शमा सिन्हा मुंबई ८-७-२४

मंच को नमन

                            “अटूट सम्बन्ध “ जाने कैसे जुड़ जाते हैं दो मीत।बनते सहगामी,लेकरअक्षय रीत।। इस जीवन के भी वो पार निभाते। रंजिशों को अपनी छोड़ हंसते गाते।। कसमों के बंधन में दोनो बंध कर। लोकलाज में रहते साथी बन कर।। गृहस्थी की गाड़ी चलाते मिल कर। रक्षित होता धर्म मर्यादा में रहकर।। कई बार ऐसा भी वक्त आ जाता। नींव का कोई पत्थर हिल जाता।। फिर चिंता की अग्नि जलाने लगती। भावि कीस्मत की दिशा सताने लगती।। जब सूझता ना आंखों को रास्ता कोई । अदृश्य होती नियति, विश्वास लेकर कोई।। धैर्य थाम, दोनों खुशी का किनारा तब ढूंढते। कुछ देर … Continue reading »मंच को नमन

“याद तुम्हारी “

          “याद तुम्हारी ” आयेगी जब याद तुम्हारी पुनः इस बार ।दोहराने फिर साथ बिताए पलों का सार।। मनाही है मेरी उनको ,रुलायें ना जार जार।करने दें चैन से मुझे इस जीवन नैया को पार ।। है ग़र पास कोई याद मीठी, होने दो स्वर गुंजार।वर्ना रहे दूर मुझसे,बार बार करें ना कांटों का वार।। पिछली बार जब वह आई थी,भिंगा गई थी पलकें।हो गया था बोझिल मन मेरा अति, रह बीच सबके।। अबकी जब आओ,संग उन्हीं पलों को बस लाओ।भर कर गीत खुशी के,मेरे मन सरल को बहलाओ।। स्वरचित एवं मौलिक। शमा सिन्हारांची।

वर्षा

“वर्षा ” ऐ वर्षा रानी,हम सब हैं रसिक तुम्हारेढंडक तेरी ऐसा लुभाती,सब होते दिवाने!बादल संग उतरती तुम जब सबको नहलाने ,बीच बीच में परिंदे भी लगते हैं चहचहाने!चोंच मार कर तोता आता,पके आम को खाने,देख मेंढक को कूद लगाते, झिंगुर लगते गाने!बड़े बेबाकी से पानी के गड्ढोंपर युवक गाड़ी चलाते,किनारे के पथिक दौड़ते अपने कपड़े बचाने!रही कसर पूरा करने को आते बोलेरो वाले,सादे स्वच्छ लिबास पर बनतीं,ब्लाक प्रिंट डिजाइने!शरारतें परेशान करती फिर भी बादल बहुत अच्छे हैं लगते! स्वरचित एवं मौलिक रचना। शमा सिन्हारांची।

चरित्रवान

रखें जो सम्मान मानवता का, रक्षक जीवों का एक समान सा! वर्ण-भेद छोड़ रक्षक है सबका, उमंगित हो विशाल सागर सा! हो सम्पूर्णता करुणा बूंदों का, विशाल सोच हो नभ नील का! रथी बना जो कर्तव्य रथ का, प्रहरी वह आचार-संहिता का! निर्मलजीत सहज विजयी सा, पथ प्रदर्शन करे सहजता का! वीर-पथिक वह सजीव राम सा, प्रेम पगा हो,वह नंद नंदन सा! सम्पूर्णता हो गीता वाचक का, चरित्र-बली केवट वह समाज का!

कुछ बातें ना कहूं तो अच्छा

चेहरे के भाव कह जाते हैं वह सब छुपा लेते हैं जिसे चतुर शब्दों से लब! जताई थी शायद उसने मुझसे सहानुभूति, चेहरे ने कर दी कुछ और अभिव्यक्ति! भारी था सिर मेरा,तप रहा था शरीर, पर समझी, उसके आंखों के इशारे गम्भीर! “आप अड़ कर उधर बैठ क्यों नहीं जाती? सारा समय लेटे रहना ठीक नहीं!” लगा जैसे विधी ने चुभाया हो कांटा, आवाज़ आई”घर से अबअपना आसन हटा!” जीवन के अंतिम पड़ाव का  बचा रास्ता, छोटी तकलीफ करती जहां हालत खस्ता! घर था उसका मैं कह क्या सकती थी? रजामंदी उसकी, मेरी उपस्थिति तोलती! रोटी ही नहीं, हर … Continue reading »कुछ बातें ना कहूं तो अच्छा

हे नारी !

बन गई जो तुम दुर्वा जैसी, पैरों तले दबा दी जाओगी! कोमल लता जो अगर हुई , श्वास तुम्हारी सहारा खोजोगी! अगर झाड़ की एक डाल बनी, आड़ी तिरछी ही बढ़ पाओगी! अगर तुम वट वृक्ष विशाल बनी, सशक्त हो, सबकी पूज्य बनोगी! करो अपनी आत्म चेतना जागृत, पान करो बस स्वंय शक्ति अमृत! सिद्धी तुम खुद अपनी बन जाओ ! त्याग अपेक्षा, बनो सत्य समर्पित , तब ही संतुष्ट जीवन जी पाओगी!

मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

हो रहा मानव विकराल, लेकर अपनी भूख को। भूल गया है वह नैतिकता की सारी चौखट को।। दारू और व्यसन को खरीदा, देकर उसने ईमान। स्वदेश-सुखद-भविष्य का किया स्वयं देहावसान।। समाज को  बढ़ते देख निघृष्ट अंधेरे दिशा  में ऐसे। घिरी निराशा से,मैं उकताने लगी हूं ऐसी जिंदगी से ।। पचहत्तर साल की स्वतंत्र विधा ने पाया है बस हमसे। लूट-खसोट, छीना-झपटी,अनन्याय,अत्याचार तरीके।। भूला  प्रताप, शिवाजी, अहिल्या रानीझांसी इतिहास । करते रहे मन से परतंत्र पराधीनता का कारागार वास।। अनभिज्ञ विरासत से,गाते रहे आक्रमणकारियों का दंश। भूला सगर, दिलीप,विक्रमादित्य,लाजपत, वल्लभ वंश।। रख कर स्वदेश स्वाभिमान ताक पर, तुच्छ अज्ञानता से। देख सामाजिक … Continue reading »मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

मौन

तेरी खामोशी में पा लेती हूं मैं अपने को, सुनती हूं वाचाल उन दबी इच्छाओं को! हुए बोल नहीं जिनके उच्चारित  लेकिन , दृढ़ संकल्प का दिलाया तुमने मुझे यकीं! एक कवच पारदर्शी है बन जाता तुमसे , शब्दहीन अभिव्यक्ति पहुंचती आगे सबके! तू शांत होकर भी, ज्वालामुखी सी दीखती, ऐ मौन,तू है मेरी निशब्द प्रेरणा की अनुभूति !

परेशानी

किसकी बात करें,किसको हम भूलें पेशानी पर छाई रहती सबकी लकीरें, हटा सकते नहीं हम सम्बन्ध का जाल मन के हर कोने ने रखा इनको पाल। किसी का आना हो,किसी का जाना अपेक्षित परिणाम की जगती है वासना शब्द के जाल बन जाते श्वासो पर फन्दे, माथे पर बूंदें उभरती हैं जब वो हैं गूंजते! सुलझा सकते नहीं इन्हें, अनेक गांठ डालते, इच्छाओं की फरियाद के साथ घुटते रहते ! 23.5.24