मां

जब भी खुलती हैं आखें तुम्हे काम में व्यस्त देखा जगी रहती हो पहर आठ, तुम ऐसी क्यों हों मां? आंंचल में भर प्रेम अथाह,खड़ी क्यों रहती सदा ? गलतियों को मेरी माफ करने को क्यों  हो अड़ी रहती? अपरिमित मेरी मांगो पर कभी क्यों तुम नही टोकती ? तुुमसे अक्सर मै रूठ जाती,क्यों तुम रूठती नही मां? हमारी मांगे पूरी करती,तुम कुछ क्यों चााती नही,मां? कष्ट अनेक सहे तुमने,फिर वरदान मुझे क्यो मानती मां? हर जिद को हमारी मां, तुम जायज क्यों हो ठहराती? तू भोली नादान ,अपने बच्चों की मनमानी नही समझती! इच्छा हमारी पूरी करने को अपने सपने … Continue reading »मां

“देखो मचा धमाल, हुआ ये कैसा हाल!”

मनभावन यह मौसम,बसंत  लेकर  है आया देखो गूंंजा बुलावा कृष्ण की मधुुर  बांसुरी का! “ना आउंगी खेलने होली,तुझसे ओ चितचोर, तूने किया विह्वल ऐसा,पिहू! पिहू बोले मोर! वृंदावन के छोरों में  ऐसी लगी  आज है होड़, किसने कितनी मटकी फोड़ी, कन्हाई रहे जोड़! मैनें भी कसम है खाई,रंग तब ही उनसे लगवाउंगी , आज माधव देंंगे बेणु अपनी,मैं ही सबको सुनाउंगी!” कह रही थी राधा,मन की बात सखी ललिता से, मुस्काते नंदलाल समझा रहे सखाओं को इशारों से! “माफी मांगने गिरना तुम सब किशोरी के चरणों में, सराबोर कर दूंगा झट,श्यामा प्यारी को मैं पीछे से!” फिर  क्या था,ग्वाल बाल्को … Continue reading »“देखो मचा धमाल, हुआ ये कैसा हाल!”

“ओ अश्रृंखल बादल!”

मकर रेखा से उत्तर दिशा में कर रही था अविका गमन, तभी बादलों के  बीच क्योंकर करने लगा रवि रमण ? बसंत आया ही था कि नभ पर हुई शयामला रोहण! “हितकर नही होता इस वक्त मेघों का जल समर्पण !” कह उठी धरा उठा हाथ,अपनी हालत श्यामल मेघ से। पर वह उच्चश्रृंखल करने लगा मनमर्जी बड़े वेग से! तेेज हवा कहीं,द्रुत बवंडर,पड़ने लगे तुफान संग ओले! “अरी,ओ हवा क्यों आई तू बन सयानी  सबसे पहले? तेरे कारण  ढका मेघ ने,आदित्य को,ओढ़ा कर दुशाले! बरबस बिजली को चपल चमकना पड़ा सबके अहले! आ रही थी खेलने सरसों , नन्ही धनिया के … Continue reading »“ओ अश्रृंखल बादल!”

होली

हे कृष्ण, तुम  लेकर रंग  ना आना इस  होली पर, कुंज गलिन ने बिछा दिया, चम्पा गुलाब राहों पर ! गिनती करते मैं थक गई,बीते कितने सूने पहर, करना ना तुम बहाना अब देखो टूटे ना मेरा सब्र! “लौटूंगा शीघ्र!” कह कर,छोड़ गये हमें गोकुल में, सखा ढ़ूढ थके तुम्हे,गलियां मथुरा-वृंदावन राहों के! खेलेंगे हम  इस बार  होली, मधुबन की मिट्टी संग हम ग्वालिने लायेंगी, जमुना-जल में मिलाकर भंग! ऐसी चढ़गी मदहोशी तुम पर,भूल जाओगे मथुरा, नंद-यशोदाके संग, सारा बृदावन का बैठायेंगीं पहरा! जैसे बांधा था मैया ने उस दिन तुमको,ओखल संग चतुराई  जो दिखाई तुमने तो भर लेंगे तुमको  अंक! … Continue reading »होली

भगवान  विष्णू

दिया यह अस्तित्व मुझे तुमने स्वीकारा तुम्हे पिता है हमने! दौड़ रहा जो लहू है जग में, कण कण है अनुग्रहीत तुमसे! चकित हूं देख तुम्हारी महारथी! स्वतः कैसे सारी क्रियायें हैं होतीं! आंख चहूं ओर सहज है देखतीं पलक झपकते तंत्र सूचना देती! पानी पीना है या भूख है लगी! अंग करते पूर्ण  इच्छायें सारी नियंत्रण करती शक्ति तुम्हारी! कैसे मन, विचार-विमर्श है करता? किस यंत्र के सहारे कार्य होता? इस यंत्र को कौन बैट्री है चलाती? उसकी उर्जा किस स्त्रोत से हैआती? किनअवयवों से विद्युत उत्पत्ति  होती! अन्न और जल कैसे सबकी पूर्ती हैं करती? नलियां कैसे भोजन … Continue reading »भगवान  विष्णू

बसंत

शीथिल हो रही प्रकृति को किसने है जगाया? गम्भीर मन उसका किसने चंचलता से नहलाया? धरा सुप्त पड़ी थीं अभी , किसने उसको बहकाया? चुनरीओढ़ा झीनी-पीली, पायल किसने है पहनाया! वह कौन शुक-सवार है जो पांच बाण लेेकर आया? बना कर हर कोना रंगीन,खेतों में भी फूल  सजाया? समीर ने पी लिया मधुरस कोई,इत-उत है फिरता बौराया! तीसी रंग गई नीली,बसंत रंग गेंदा ने है बिखराया, फैला कर बांहें डालिया ने,टिथोनिया को गले लगाया! सोया मोगरा जाग उठा,उड़ा गुलाल,होश में रजनीगंधा आया! गाने लगे गीत भौरे,तितलियों ने  वेणु पर राग मल्हार  बजाया! ब्रजवासी हुये यूं मस्त जैसे अबीर संग मदन ने भंग … Continue reading »बसंत

होली

मोर ने वन में पीया पिया मधुर रट है लगाई प्रेम रंग अपटन चढ़ा मोरनी होली खेलन आई! कर रहे बाग-भौरे गुंजार,हवा में बज रही शहनाई ! खुशबू ने घोला भंग तुलसी में,बेणु ने है सबकोपिलाई ! चकोर से पूछा चांद ने”क्यों तूनेऐसी हालत बनाई ? देख मुझे हो रहे मदहोश,जैैसे रांंझा ने हीर हो पाई!” ……. “मेरा हाल  ना पूछो चंदा,दिवानगी ऐसी है छाई! सुुख सराबोर है गोकुल,लल्ला पाकर कुंज बौराई! गोपियों संग माखन-गेंंदो की होली खेल रहे कन्हाई बृृजउत्सव  नही तुमने देखा,तभी कर रहे मेरी हंसाई राधा गूंंथ रही बैजन्ति,गोप-गोपियां रंगें रंग कन्हाई ! नंंद बाबा भंडार हैं … Continue reading »होली

“निदान की उलझन”

जाने क्यों पुनः घूम कर आ जाती है समस्या पूर्णिमा के बाद  जैसे आती है अमावस्या! लगता है एक क्रम में सजा हैं सारा विधान जिसमें निश्चित है उतार चढ़ाव का परिमाण। जहां एक खत्म होता है वही से होता प्रारंभ, नाचता है जीवन सदा लिए हुए अपना दंभ! पाकर सुख कैसे संघर्ष की यादें ढक जाती हैं वहीं से अंजान नई  कहानी शुरू हो जाती है! इस  तमाशे का चक्र आजीवन चलता रहता है नये  से परिचित कराकर, पहला चला जाता है! “सब सुलझ जायेगा!” उम्मीद  दिन बीतते हैं! तमाशबीन बने हम तस्वीर बदलते देखते रहते हैं! पता ही … Continue reading »“निदान की उलझन”

जलेबी और  समोसे की सगाई

हो रहा था बसन्तआगमन शुुक सवार कामदेव का! खिले अनेक थे फूूल,चख रहा था रस मधुकर मधु का! गुजरा तभीआकाश से,पुुष्पाच्छादित कामदेव रथ था। कलकत्ता गलियों में छन रहा था गर्मा गर्म  समोसा! हवा ने की ठिठोली, लेकर खुशबू ढेरआचल में समेट, ठुुमकती लहराती वह पहुंची, कामदेव को करने भेंट! “वह क्या बन रहा है,रथी?”पूछा कामदेव ने बेचैनी से। “वहीं से तो मैं आ रही!”धीरे से कहा चंचला हवा ने। ” लीजिए, आपके लिए मैं लेआई बांध इसे आचल में, बहुत नायाब है यह पकवान! स्वाद अनोखा साथ में!” मशहूर” दुकानों  के सिंघाड़ों ने एकसाथ जोर से पुकारा, “वैलेंटाइन डे … Continue reading »जलेबी और  समोसे की सगाई

जो हो नही सकता वही तो करना है!

मन लगाता आकाश परे छलांग ले लेते हैं सपने रूप सांगोपांग ! लालच के जाल में जीव तैरता रहता, भोगी बना,योगी का स्वांग है रचता! धरा पर  वह स्वर्ग  उतारना चाहता मृग बना मरीचिका सदा है खोजता! समेटकर अथाह ,वह रहता है प्यासा! अपनी युक्ति से खुद को देता है झासा! इस शरीर  से वह रखता है अथाह  मोह। हराने को नियती, वह पथ पर रखता टोह! दृष्टि पाकर ,विहीनअन्तर्मन ज्योति डोलता सत्य परिचित होकर भी वर्चस्व मद लोटता! विवेक शून्य वह पृथ्वी को अपनी सम्पत्ती बना, लोक लाज  मर्यादित ध्वनित  को वह नकारता, वासना की श्वास संग वह आसमान … Continue reading »जो हो नही सकता वही तो करना है!