मन की आंखें

मंच को नमन शीर्षक-मन की आंखेंविधा-कवितातारीख-8- 4 -24 वे होतीं हैं सबसे समझदार,तोलती पक्ष ,दिशा आर पार!तत्व का खोज लेती गूढ़ सार,सक्षमता गढ़ती सत्य आकार! स्वरचित एवं मौलिक शमा सिन्हारांची।

“मजाक”(Ranchi  kavya manch)/”ध्यान के अंकुर”(for Mansarover  sahitya)

पल पल घर में गूंजाना  किलकारी! प्रिय बनाना शब्द उच्चारित  सबके, चेहरे पर सजाना ,चमकती मीठीहंसी! तह पर तह सजे सारी ऐसी बात, ए  हंसी तुम आओ  झोली भरके! मीठी यादें भिंंगोये हमारी पलके! वही लौटने को मन चाहे दिन रात जहां फिर हम सब हो जायें सबके! बिछे नही प्रतियोगिता की बिसात हंसी ठिठोली लाये ठहाके सबके बीते समय रसीले ठहाकों के साथ मजाक ना करे टुकड़े किसी दिल के! स्वरचित  एवं मौलिक रचना शमा सिन्हा रांची।

मेरा मन

जाने क्यों यह मन बहुत परेशान  हो जाता है कुछ  नही बस में किंतु निदान खोजता रहता है समझा समझा कर मै हारी,मानना नही चाहता जाने क्यों इस भेद को स्वयं सुलझाना चाहता है! कर्मो  ने लिख दिया है नियती की दिशा का नाम उसे हमारी इच्छाओं से नही कुछ भी काम ! लाख तुम  सोचो, अपने अहं  को सहेजते रहो, गिनते रहो अपने दुःख, उम्मीद लेकर तड़पो, तुम्हारा यह मन ,तुम्हे असहज बना कर रखेगा, इसके साथ उलझते सारा समय  बीत जायेगा! चाहत है अगर  शांति से  वक्त गुजारने का हौसला मन को रखो अनुशासित, ना दो इसे मनमाना … Continue reading »मेरा मन

मां

जब भी खुलती हैं आखें तुम्हे काम में व्यस्त देखा जगी रहती हो पहर आठ, तुम ऐसी क्यों हों मां? आंंचल में भर प्रेम अथाह,खड़ी क्यों रहती सदा ? गलतियों को मेरी माफ करने को क्यों  हो अड़ी रहती? अपरिमित मेरी मांगो पर कभी क्यों तुम नही टोकती ? तुुमसे अक्सर मै रूठ जाती,क्यों तुम रूठती नही मां? हमारी मांगे पूरी करती,तुम कुछ क्यों चााती नही,मां? कष्ट अनेक सहे तुमने,फिर वरदान मुझे क्यो मानती मां? हर जिद को हमारी मां, तुम जायज क्यों हो ठहराती? तू भोली नादान ,अपने बच्चों की मनमानी नही समझती! इच्छा हमारी पूरी करने को अपने सपने … Continue reading »मां

“देखो मचा धमाल, हुआ ये कैसा हाल!”

मनभावन यह मौसम,बसंत  लेकर  है आया देखो गूंंजा बुलावा कृष्ण की मधुुर  बांसुरी का! “ना आउंगी खेलने होली,तुझसे ओ चितचोर, तूने किया विह्वल ऐसा,पिहू! पिहू बोले मोर! वृंदावन के छोरों में  ऐसी लगी  आज है होड़, किसने कितनी मटकी फोड़ी, कन्हाई रहे जोड़! मैनें भी कसम है खाई,रंग तब ही उनसे लगवाउंगी , आज माधव देंंगे बेणु अपनी,मैं ही सबको सुनाउंगी!” कह रही थी राधा,मन की बात सखी ललिता से, मुस्काते नंदलाल समझा रहे सखाओं को इशारों से! “माफी मांगने गिरना तुम सब किशोरी के चरणों में, सराबोर कर दूंगा झट,श्यामा प्यारी को मैं पीछे से!” फिर  क्या था,ग्वाल बाल्को … Continue reading »“देखो मचा धमाल, हुआ ये कैसा हाल!”

“ओ अश्रृंखल बादल!”

मकर रेखा से उत्तर दिशा में कर रही था अविका गमन, तभी बादलों के  बीच क्योंकर करने लगा रवि रमण ? बसंत आया ही था कि नभ पर हुई शयामला रोहण! “हितकर नही होता इस वक्त मेघों का जल समर्पण !” कह उठी धरा उठा हाथ,अपनी हालत श्यामल मेघ से। पर वह उच्चश्रृंखल करने लगा मनमर्जी बड़े वेग से! तेेज हवा कहीं,द्रुत बवंडर,पड़ने लगे तुफान संग ओले! “अरी,ओ हवा क्यों आई तू बन सयानी  सबसे पहले? तेरे कारण  ढका मेघ ने,आदित्य को,ओढ़ा कर दुशाले! बरबस बिजली को चपल चमकना पड़ा सबके अहले! आ रही थी खेलने सरसों , नन्ही धनिया के … Continue reading »“ओ अश्रृंखल बादल!”

होली

हे कृष्ण, तुम  लेकर रंग  ना आना इस  होली पर, कुंज गलिन ने बिछा दिया, चम्पा गुलाब राहों पर ! गिनती करते मैं थक गई,बीते कितने सूने पहर, करना ना तुम बहाना अब देखो टूटे ना मेरा सब्र! “लौटूंगा शीघ्र!” कह कर,छोड़ गये हमें गोकुल में, सखा ढ़ूढ थके तुम्हे,गलियां मथुरा-वृंदावन राहों के! खेलेंगे हम  इस बार  होली, मधुबन की मिट्टी संग हम ग्वालिने लायेंगी, जमुना-जल में मिलाकर भंग! ऐसी चढ़गी मदहोशी तुम पर,भूल जाओगे मथुरा, नंद-यशोदाके संग, सारा बृदावन का बैठायेंगीं पहरा! जैसे बांधा था मैया ने उस दिन तुमको,ओखल संग चतुराई  जो दिखाई तुमने तो भर लेंगे तुमको  अंक! … Continue reading »होली

भगवान  विष्णू

दिया यह अस्तित्व मुझे तुमने स्वीकारा तुम्हे पिता है हमने! दौड़ रहा जो लहू है जग में, कण कण है अनुग्रहीत तुमसे! चकित हूं देख तुम्हारी महारथी! स्वतः कैसे सारी क्रियायें हैं होतीं! आंख चहूं ओर सहज है देखतीं पलक झपकते तंत्र सूचना देती! पानी पीना है या भूख है लगी! अंग करते पूर्ण  इच्छायें सारी नियंत्रण करती शक्ति तुम्हारी! कैसे मन, विचार-विमर्श है करता? किस यंत्र के सहारे कार्य होता? इस यंत्र को कौन बैट्री है चलाती? उसकी उर्जा किस स्त्रोत से हैआती? किनअवयवों से विद्युत उत्पत्ति  होती! अन्न और जल कैसे सबकी पूर्ती हैं करती? नलियां कैसे भोजन … Continue reading »भगवान  विष्णू

बसंत

शीथिल हो रही प्रकृति को किसने है जगाया? गम्भीर मन उसका किसने चंचलता से नहलाया? धरा सुप्त पड़ी थीं अभी , किसने उसको बहकाया? चुनरीओढ़ा झीनी-पीली, पायल किसने है पहनाया! वह कौन शुक-सवार है जो पांच बाण लेेकर आया? बना कर हर कोना रंगीन,खेतों में भी फूल  सजाया? समीर ने पी लिया मधुरस कोई,इत-उत है फिरता बौराया! तीसी रंग गई नीली,बसंत रंग गेंदा ने है बिखराया, फैला कर बांहें डालिया ने,टिथोनिया को गले लगाया! सोया मोगरा जाग उठा,उड़ा गुलाल,होश में रजनीगंधा आया! गाने लगे गीत भौरे,तितलियों ने  वेणु पर राग मल्हार  बजाया! ब्रजवासी हुये यूं मस्त जैसे अबीर संग मदन ने भंग … Continue reading »बसंत

होली

मोर ने वन में पीया पिया मधुर रट है लगाई प्रेम रंग अपटन चढ़ा मोरनी होली खेलन आई! कर रहे बाग-भौरे गुंजार,हवा में बज रही शहनाई ! खुशबू ने घोला भंग तुलसी में,बेणु ने है सबकोपिलाई ! चकोर से पूछा चांद ने”क्यों तूनेऐसी हालत बनाई ? देख मुझे हो रहे मदहोश,जैैसे रांंझा ने हीर हो पाई!” ……. “मेरा हाल  ना पूछो चंदा,दिवानगी ऐसी है छाई! सुुख सराबोर है गोकुल,लल्ला पाकर कुंज बौराई! गोपियों संग माखन-गेंंदो की होली खेल रहे कन्हाई बृृजउत्सव  नही तुमने देखा,तभी कर रहे मेरी हंसाई राधा गूंंथ रही बैजन्ति,गोप-गोपियां रंगें रंग कन्हाई ! नंंद बाबा भंडार हैं … Continue reading »होली