मंच को नमनमान सरोवर काव्य मंच।शीर्षक -यह कलियुग है जनाबतारीख -१२.१२.२४विधा-कविता          “यह कलियुग है!” यह कलियुग है जनाब, चलता जहां अनियमितता की शक्ति।, लूट-पाट चोरी का है बोलबाला और गुंडों की दबंगई। धन के रंग से फर्क नहीं पड़ता,धन वाले पाते इज्जत। लिबास पहन कर सोफीयाना, सीधे लोगों को करते बेइज्जत! गरीब की होती एक जाति, उसे मिलती छूट खाली पेट सोने की। चारित्रिक उत्सर्ग का मापक है गाड़ी,गहना और हवेली । बेटी बहू और पत्नि में अब रहा ना कोई फर्क। गलबईयां डाले सब घूमें साथ,आवे ना किसी को शर्म! मात पिता के धन पर,बच्चे जमाते अपना गद्दारी … Continue reading »

लेखनी का संसारभाव प्रतिबिम्ब चित्र आधार शब्द:बेबसी की जंजीरदिनांक -११.१२.२४ ये कैसा दिया है पंख मुझे ,कैची धार बीच जो है सजे?बंधन छोर मुख बीच फंसे,दोनों का घातक खेल चले! भूख अपनी मिटा नहीं सकती,बातें अपनी कह नहीं सकती।खुली ज़बान तो होऊंगी परकटी,आप ही दो बबूल बीच अटकी! लाचारी भरी है  मेरी मनोदशा,काल-कलुषित कर नारी की दशा।पद-पेट,तन-मन , चारों को फंसा,व्यक्त कर रही दुराचारियों की कुंठा! क्या न्यायिक है यह आचार समाज काबांधना था यूं अस्त्र बीच जीवन सपनालवण चटा,लिया ना क्यों प्राण उसकाउठता ना कभी प्रश्न उसकी स्वतंत्रता का! स्वरचित एवं मौलिक रचना। शमा सिन्हारांची, झारखंड। दिनांक -११.१२.२४

     “उम्मीद का हश्र “

क्यों बार बार इस उधेड़-बुन में रहती हूं। नई उम्मीद के साथ मैं राह निहारती हूं । इस बार शायद मेरा हाल तुम पूछोगे। दुखती मेरी रगों को तुम सहलाओगे। हाथों में लेकर हाथ हृदय से लगाओगे! मेरी शिकायत तुम आज दूर कर पाओगे । हर बार अपनी ज़िद पर तुम अड़े रहते हो! हर बार यूंही मेरी आरज़ू को मात दे जाते हो! मेरी तकलीफ़ तुम पर बेअसर हो गई है ! क्यों वो,अपने वादे तुम्हें अब याद नहीं है? मेरी पुकार तुम पर अब असर नहीं करती? ऐसे ही मिटा गये तुमने सारी हस्ती हमारी ! इतनी जुदाई, फिर … Continue reading »     “उम्मीद का हश्र “

रहे गई है कुछ कमी

नित करती हूं मैं नियम अनेक फिर भी पाती नहीं  तुम्हे देख। मेरे कान्हा करती हूं क्या ग़लती, व्याकुल यूं क्यों होकर मैं फिरती? कहो तुम्हारे वृन्दावन में ऐसा क्या, गोपाल बने मटकते वन में जहां? माना अच्छा ना था भोग हमारा पर अब तो हैं मेवा मिश्री भरा! रखती मैं तुम्हारी सेवा में वह सब, कृपा से तुम्हारी मेरे पास है अब। हां, ध्यान नहीं लगा पाती मैं ज्यादा भूख पीछे से पकड़ लेती मन सादा। तुम से हटकर, भोजन में मन है बसता शायद तू भी प्रेम-कृपा नहीं है करता! चाहती हर पल मैं,तेरा ही दर्शन करना,   … Continue reading »रहे गई है कुछ कमी

           “मन को पत्र “

तुझको समझाऊ कैसे रे मन ,तू मेरा कैसा मीत, परिंदों की उड़ान,श्रावण समीर या है गौरैया गीत ? उड़ा कर साथ कभी ले चलते मुझको, इंद्रधनुष को छूने, घर के छत से बहुत ऊपर खुलते झरोखे जिसके झीने। बिना रोक टोक के चलतीं जहां, चारों दिशाओं से हवाएं, चमकती है चांदनी जहां से, और टपकती ओस की बूंदें। बिजली की धड़कन में छुपा स्वाति का घर है जहां पर। भींच कर बाहों में, सीने से लगा,भर लेता,अंक  अपने समाकर! लड़ियां जुगनू की लटकी है जहां बहार के मण्डप पर। तू उमंगित करता मुझको आस-सुवासित जयमाल पहनाकर । मनमौजी तू,,चल देता … Continue reading »           “मन को पत्र “

“मुझे चाहिए!”

एक सखा  सौहार्दपूर्ण चाहिए जो सुन ले। मेरी हर बात अपने पास सुरक्षित रख लें।। गलतियों को मेरी ढक कर दफन जो कर दे। दुखते जिगर के तार को स्पर्श कर सुकून दे ।। गम्भीर उसके बोल यूं हृदय में मेरे पैठ जायें। सुनकर जिसे मिट जायेअपेक्षा-मनोव्यथायें।। हो उसके पास ऐसा वह धन, सन्तोष की ताबीर। रंग दे सहज मन को खुश्बू में जैसे गुलाल-अबीर।। जरूरी नही,रहे वह गिरफ्त में मेरे पास सदा। लेकिन करले स्वीकार मेरी अच्छी-बुरी अदा।। तटस्थ वह रहे सदा जैसे सूर्य का नया सवेरा। भरा हो जिसमें चहचहाहट , मुस्कुराता चेहरा।। मेरे हर अनुभव को कर … Continue reading »“मुझे चाहिए!”

काव्यमंचमेघदूत विषय -#चित्रलेखनदिनांक -25.9.24 ‌‌ “बादलों की बाहों में “ पहाड़ोंसे मिलने मैं जा पहुंची घाटी से दूर।पसरी धरती यूं सजी जैसे कोई चपल हूर।। रूई की गठरी से ढके आकाशीय दरख़्त ।देख मन मेरा, हुआ कुछ पल भय आक्रांत।। जैसे उतर रहा हो आकाश, ऐसा था नजारा।अचानक मिलने धरा से वह हो गया बांवरा।। चला समीर बन द्रुतगामी,बहा ले गया साथ।मंत्र-मुग्ध मदहोश,चल पड़ी थामें उसका हाथ।। शीतल उसके स्पर्श ने कंपकंपाया मुझे एक बार।निकला पथ अपने फिर तोड़ मेरी बेहोशी का तार।। कुछ पल मैं लड़खड़ाई ,समझ गई उसका व्यवहार।उस अलमस्त नृप-नीर आया उड़, कर सागर पार।। सहयोगी उसके … Continue reading »

जीवन, पानी का बुलबुला

जीवन में संचित सारे सुख की लम्बाई है बस एक पल। बारिश की बूंदों सी,पलक झपकते जाती मिट्टी में मिल।। अभी अभी जो जन्म लिया इसलिए  ही वह था रोया। इसलिए ही नये वस्त्र पाकर,तनिक ना वह खुश हो पाया।। स्मृति पटल ने  चित्र साझा किये, अनेक पिछले जीवन के। व्याकुल हुआ देख खुद को दौड़ते, हांफते, कराहते और रोते ।। आर्त हृदय से  उसने पुकार कर “लौटा लेने”का किया अनुरोध। पर उसका हो चुका था पदार्पण, सबसे बड़ा था अवरोध।। बन्द हो गये थे दरवाजे सब, क्रंदन कर समझाया खुद को। मां के स्पर्श ने ढांढस दिया उसके व्यथित मन … Continue reading »जीवन, पानी का बुलबुला

“मेरी अपनी -हिंदी भाषा “

मंच को नमनमानसरोवर साहित्य अकादमीमानसरोवर ई बुक पत्रिका हेतु, मेरी रचनादिनांक -12.9.24विषय -“मेरी अपनी- हिंदी भाषा “मेरी अपनी हिंदी भाषा” हृदय से आभार है मेरी अपनी हिंदी भाषा को।सौहार्द जगाकर जोड़ जाती मेरे सबअपनों को।। दूर देश बसे बच्चों में घोल देती असीम मृदुलता।मिलाती हर समय सहेलियों को इसकी सहजता।। कोयल सा कोमल सुरीला होता इसका उच्चारण ।निर्जल व्रती को मिलता जैसे सूर्य उदय पर पारण। हर भाव सहज ही हो जाता है सबका अभिव्यक्त।भरती उत्साह हिंदी हममें, जितना शूरवीर को रक्त।। त्याग, करुणा, आत्मबल का हिंदी है प्रतीक।हर भाव की अभिव्यक्ति होती स्वभावत: सटीक।। करु मां को याद तो … Continue reading »“मेरी अपनी -हिंदी भाषा “

मंच को नमन ।महिला काव्य -मंच प. रांचीतिथि -२८.८ २४विषय -बतरसविधा- दोहाशीर्षक – बतरस “बतरस”

बतरस होता है तब ही रस भरा।जब मिलता है मन उमंग भरा।। लौटता जैसे है बचपन फिर से।मस्त बने गांव गली में फिरते।। कितने मनोहर सब नटखट से सीखते।चतुर राबडी की कई कथा है सुनाते।। हार नहीं वे किसी से मानते।बढ़ चढ़ कर सब शेखी बघारते।। झूठी सांची धटना को जोड़कर।नये नये तिलिस्म तीर वो मारते।। देने को मात वे कुछ भी कह जाते।तीरंदाजी में वे अर्जुन को हरा डालते। सपनों के ये व्यापारी,स्वप्निल दुनिया में जीते।अग्रज बस मुस्कुरा कर रह जाते। मौसी नानी जब थपकी दे देती।चौंक कर क्षणिक ,वे चुप हो जाते ।। उनको मिलने से ज्यादा बतरस … Continue reading »मंच को नमन ।महिला काव्य -मंच प. रांचीतिथि -२८.८ २४विषय -बतरसविधा- दोहाशीर्षक – बतरस “बतरस”