जाड़े की धूप
मिलती जाड़े कीधूप हमें,काश शहरी बाजार में! होता इससे सबका श्रृंगार घर के सुुनहरेआंगन में! फिर सबके नयन नही, जोहते बेसब्री से उसकी बाट! कपड़े भी झट सूखते,नही लगती इतनी देर दिन सात! पर शायद!ऐसा सपना कभी नही हो सकता है पूरा! विज्ञान का,प्रकृतीरहस्य में हस्तक्षेप होगा बहुत बड़ा! आज धूप छुु़ड़वाता काम,तब होती है मुुन्ना-मुन्नी की मालिश ! बच्चों को भी करनी होती सोच विचार कर बहुुत साजिश ! तब जाकर बाहर खेलने की,उनकी पूरी होती ख्वाहिश ! अम्मा भी तब कहतीं”सूूर्य ही देगा विटामिन डी पौलिश! यहीं हमारे कपड़े धुलेंगे,तह होंगें सब और सब सूखेंगे! आज हम सब …