बिडम्बना

विश्व हिंदी सृजन सागरविषय_ चित्र लेखनविधा_ कवितादिनांक_07/01/2024 विडम्बना बांधा था मां यशोदा ने कृष्ण चंद्र लाल कोगोपियों की शिकायत. माखन की लूट को ब्रम्हांड कौ जो बांधे,रस्सी कौन बांधे उसको?विधीका विधान देखो,कुपूत ने बांध मा बाप को! आंख लाचार,पैरों से हुआ मुश्किल चलना!जतन करें कैसे,कठिन है दो वक्त का खाना! उम्मीद रही टूट ,किया शुरू अंधेरे ने घेरना!सब धन लुटाया जिनपर वही करें अवहेलना! लगीआस जिसकी,सीखा नही उसने वादा निभाना! किस्मत को आता बस,लाचारी की हसीं उड़ाना! (स्वरचित मौलिक कविता) शमा सिन्हाता: 07/01/2024

मन का पंछी

मंच को नमन।मान सरोवर साहित्य अकादमीआज की पंक्ति – मन का परिंदाविधा-कवितातारीख-5/1/24 “मन का परिंदा” बड़ा दुलारा है वह मनमौजी, अपनी ही चाल से है वह चलता। इच्छाओं की तह से निकल कर, अचानक ही वह है उड़ने लगता! रहता नित नूतन परिहास में डूबा! भंग शांति कर,वह व्यंंग सुनाता। सिर-चढ़ा वह, कभी बात ना मानता! मन–आँगन में नित नये नांच दिखाता! मुश्किल बहुत है समझाना उसे। उसकी हलचल से दुनिया मचले! पुष्पक वाहन लेकर सर्वत्र वह डोले! कदम बढ़ाये बिना समय को तोले! जीवन भर क्यों ना मानव करे प्रयास, मन का परिंदा कर ना सके अपने बस! सफलता … Continue reading »मन का पंछी

“खामोशी”

रेतीले कैक्टस के पौधे पर एक पुष्प था खिला। अगल बगल के फूलों ने उसे बड़े गौर से देखा! सब अपने साथीयों को दे रहे थे ढेरों शुभकामनायें; छेड़ रही थी”नव वर्ष”रागिनी पेेड़ से झूूलती लतायें! अनदेखा उसको कर, वे लगे झूमने दूसरी दिशा में! “वक्त ना था साथ उसकेअभी!”उसे बतायाअंतर्मन ने! पुकारा खिली पंखुड़ियों को उसने,देख उन्हें प्यार से! छोड़ उसेअकेला, मस्त थे साथ पंख फैलाये हंसनें में। कहा किसी ने,”तू है कांटों पर खिलने वाला रेती पुष्प! हमें देेख!हम रूपहले !सुंदर !तू तो है पत्र- विहीन शुष्क! आंखों में भर पानी,मुस्कान रोक,सिमट गया वह चुपचाप। फिर ना वह बोला … Continue reading »“खामोशी”

अन्तर्मन से आखों की बात !

मिली आज चेतना को मेरी, बड़ी अनोखी एक सौगात! अंतर्मन नेेत्रों को हुई , विश्व देख रही आखों से बात ! बांटने में थे दोंनों तत्पर अपनी अपनी उलझी गांठ! बताया एक ने तभी,”बिछी बाहर चौपड़ की बिसात !” मझधार से दूजा खींंच रहा था नौका ,बीच समुंदर सात! दोनों ही धे उलझे बहुत, खड़ी थी समस्या पात पात! कहा एक ने, “आओ हम ले लें,प्रभू-रचना काआनंद !”, दूसरे ने चेताया”धैर्य से बढ़ना आगे,रख इच्छा को बांध! विशाल आसमान के तारे गिनते, फंस ना जाये तुम्हारे पाद! खो जाता है विवेक जब , बहती बसी-बसाई बस्ती! भांती नही भलाई की … Continue reading »अन्तर्मन से आखों की बात !

ममता की रचियता

तुम चाहे कुछ ना कहो!अपना परिचय भी ना दो!मौन तुम्हारी परिभाषा है,जीवन की तुम ही आशा हो! सफल परीक्षण ममता करती,उद्घोषक हो सबके नियती की!तुम शक्ति, तुम ही हो सरस्वति!जीवन दायक ,तुम ही हो धारिणी! माता ,मित्र,सेविका सहचरी हमारी!हर रूप में लगती अपरिमित न्यारी!भरती खुशियां,सुन हमारी किलकारी!सृजित कण कण ब्रह्मांड तुम्हारी धूरी!

“नये वर्ष के लिए “

कल्पना से भरी हुई अपेक्षा की तस्वीर , सुखमय और जीवन्त सुधार की तदबीर! चुन कर खुशबू फूल हरश्रृंगार,रंग-अबीर, पूर्ण करूंगी अधूरी मैं वह अपनी ताबीर ! आकाश को मै कुछ ऐसे हिस्सो में बांटूंंगी, पुष्पित कुंज-गलियों में गायेगी कोयल काली! आधे मे शरमायेगा सूरज,सजेंगे ऐसे बादल , बाकी में नाचेगा चांद,साथ चलेंगें तारे पैदल! गुलाब जामुन,जलेबी मिल सजायेंगीं रंगोली, महफिल में होंगें बस दो,मैं और मेरी सहेली! एक बार फिर से बचपन को आयेगा दोबारा खट्टा मीठा गोली पाचक खायेंगे बहुत सारा! हर सोमवार के साथ आयोगा दोस्त रविवार , सारे साल गुंजायेंगॅ खुशियों से अपना परिवार! (स्वरचित मौलिक … Continue reading »“नये वर्ष के लिए “

बीते वर्ष की सैर/जाता हुआ वर्ष

अनुुभव बहुत सारे बटोरकर रख लिया है। इसीलिए लिए तो आज वह याद आया है। समेट अपने सारे,एक एक रंग बिरंगे पंख ठंड मे हीआया था,उड़ गया फुर्र से नभ! स्वस्थ और मस्त था”दह-चूड़ा”,सूर्य-संक्रांती का, लाजवाब स्वाद खिचड़ी-चोखा,पापड़ अचार था! फिर मची धूम शादी ब्याह और भोज के न्योता से। उम्र के इस मोड़ पर,इम्तिहान की चिंता से मुक्त थे! हमारी जिम्मेदारी में अनुजों की हौसलाअफजाई बची। बीते वर्ष की घटनाओं में बस मस्त-मोहक यादें हैं छाई! (स्वरचित कविता) शमा सिन्हा रांची। ता: 28-12-23

“लम्बे सफर में”

गतिरत रचना प्रभू की जैसे है विचरती। सूर्य-चंद्र और नभ की विधा सारी दीखती । यह जीवन भी अविरल चलता सदा रहता है! बिना रुके कर्म का हिसाब करता रहता है। सारे जीव बंटे है कर्म अनुसार कई श्रेणी में। गगन और धरती के बीच डोलते हैं बंंधन में। सफर यह नायाबअंतहीन चलता ही रहता है। उम्र की गिनती से परे,एक चक्र से दूसरे चक्र में! ईश्वर की रचना मे,संख्या नाप नही सकती लम्बाई , हर जन्म मे होता है अलग अलग उम्र का सफर! (स्वरचित कविता) शमा सिन्हा ताः 28-12-23

जाड़े की रात

घर मे त्योहार सा उमंग भरा माहौल था छाया मुन्नी माई के पास बेटे का टेलीग्राम था आया! दो रात की रेल सवारी करके,बेटा पहुंचा मुम्बई खुश देख छोटी बहन को, नांचने लगा नन्हा भाई! ” मिल गई है मुझे नौकरी!”खबर जब चिट्ठी लाई, “जाड़े की छुट्टी में सब जायेंगे!”,मुुन्ने ने शोर मचाई ! कंबल की भी संख्या कम धी,फटी हुई थी रजाई ! “हम सब साथ नही जा सकते!”मां ने चिंता जताई। “रात में जब पड़ती है ठंड, लड़ते हो सब खींच चटाई! आस पड़ोस में होगी खिल्ली,रिश्ते मे घुलेगी खटाई । बीच रात में पापा उठकर करेंगे सबकी … Continue reading »जाड़े की रात

चांद

धीर धरकर चकोर,मन को तू जरा बांध ले! पुकारता जिसे है तू,वह तुझे ही है निहारे! पाकर एक झलक,तूझे यह क्या हो गया रे? वह व्याकुल चकवा भी तो कह रहा है- “पूर्णता चाहत की,मिलन में होती नही ! नीलाआसमान भी यूंही लहराता नही! क्षितिज के दोनों छोर से खोजता आया है धरती के संग,धूरी पर वह नाचता रहा है!” देख तुझे अब हो रही सारी दुनिया बावली, चीर कर नभ,तेरे क्षितिज को छूना चाहती! हाथ बढ़ा,वह तेरा दामन पकड़ना है चाहता! ऐ चांद, अब तुझसे मानव भी दीदार है मांंगता!