Frolicking Sea

Sun has risen,waves march with load  surface roll-on frothy,pearly they float! Not one ,not two, countless in crowd Following each other, roaring out aloud! I asked one day”why are you so proud? why not swim slow,why don’t you trot?” Are you not a braced on dull ventral vast And hooked to hearth on its dorsal  fast!?” Calm you are below, but rowdy Laurel cast, Holding  rainbows in  clinching oysters  Unfolding loveful, creamy mother pearls! Here, there you leave unseen mantle spread  Dumb shankha, snails tortoise,many unsaid, To return account, enwrapped cobbed inward!” The waves whispered among themselves ,soft “It’s a … Continue reading »Frolicking Sea

बिडम्बना

यह सफर या पहेलियों की इमारत मिलती नही जिसकी नींव और छत। हर पल इच्छाएं खड़ी लगाकर भीड़ ब्याकुल है चित,करने को निर्माण नीड़ । प्रयास रेखा चिन्तन का साक्ष्य लेकर बढ़ना दूसरे पल बलहीन धरा पर आसुओं का गिरना। स्वप्न धन लेकर ईक पल हवाई उड़ान भरना, जैसे वृक्ष पर श्री फल को देख उम्मीद करना! वक्त गुजरता है हम स्वप्नलोक में हैं उड़ते छोड़ जाना है, सबकुछ ही हम हैं भूलते आता है होश जब सपना अहं का टूटता और फिर सब निर्रथक साबित है होता।

“काश”

कदम जब भी उढते है, और रास्ते पर लोग दीखते हैं। भ्रम सा हो जाता है, उम्मीद से, आंखें आगे तकने लगती। न चाहते हुए भी एक ख्वाहिश सी जाग जाती है। फिर से मन पर बरबस, ईक बेचैनी छाती है। गुजरते काफिले में ढूंढने लगती हैं, आस संजोए दो खुली पुतलियाँ, खो गए अचानक जो, उन्हीं को! बिडम्बना, होठों को सीलती है। रौशनी को, बदली ढाक जाती है। आकांक्षा बरबस शीथिल होती हैं। आस को, वह फिर से समझाती है। उतना ही सच मानो, जो हुआ हासिल, वक्त के पहले और हक से ज्यादा, किसी को नहीं मिलता है … Continue reading »“काश”

ऐ वक्त…..

ऐ वक्त  तेरी किस्मत पर आता मुझे है  रश्कपहन कर सरताज तू बेफिक्र हो, फिरता बेशक! तुुझपर तो  बरसती हैं बेहिसाब खुदाई की रहमतें, ख्वाहिशों पर तुम्हारे नही किसी की कोई बंदिशे। हक है तुझे लकीर खींचने का जिन्दगी में सबके,हस्तक्षेप कर पल में,जीत लिया बेशक कई तमगें। किसी को कितनी  भी हो तकलीफ,  तुझे क्या?आंखों पर बंंधी पट्टी  दूर रखती तुझसे शर्मो- हया। सुख-सुकून की झोली रखता कटि कसकर बांधे,तेेरी रहमत के इंतजार में हाथ रहते हमारे  बंधे! आखें खुलती नही तेरी किसी की तकलीफ  देखकरदरवाजा खुशी का खोलता है तू मुश्किल से क्षण भर! जाने क्यों,हम श्वासों को अपनी … Continue reading »ऐ वक्त…..

“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”

“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!” कहां छुुप गई वो रंंगीली प्यारी होली,आती जो बन अपनी, लेकर संग हुल्लड भरी बाल्टी , लाल- हरी नटखट सजनी? हमें भुलाने , मां हाथों में रखती,दस पैसे वाली पुड़िया कई, अबरक चूर्ण मिलकर जो बन जाता,चमकता रंग पक्का सही! हम शातिर बन इकट्ठा करते, बाजार में आई नई तकनीकी, भैया, दीदी तब काम आते,पोटीन की बनती लेप चिकनी! जिसने हमें गत वर्ष डंटवाया,विशेष उसके लिए रखी जाती! चेहरा साफ करने में, महोदय की हालत बहूूत दयनीय होती! मिल जुल कर सभासदों की,किसी शाम हम कर लेते गिनती, होली के लिए, चयनित होने को … Continue reading »“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”

“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”

कहां छुुप गई वो रंंगीली प्यारी होली,आती जो बन अपनी, लेकर संग हुल्लड भरी बाल्टी , लाल- हरी नटखट सजनी? हमें भुलाने , मां हाथों में रखती,दस पैसे वाली पुड़िया कई, अबरक चूर्ण मिलकर जो बन जाता,चमकता रंग पक्का सही! हम शातिर बन इकट्ठा करते, बाजार में आई नई तकनीकी, भैया दीदी काम आते,पोटीन की बनती गाढी लेप चिकनी! जिसने हमें गत वर्ष डंटवाया,छुपा उसके लिए रखी जाती! महोदय को चेहरा साफ करने में, हालत बहूूत ही दयनीय होती! मिल जुल कर सभासदों की,किसी शाम हम कर लेते गिनती, होली के लिए, चयनित होने को नेता करते हमसे मीठी बिनती! किसी … Continue reading »“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”

आदतें बदल रही है”
आदतें बहुत बदल रहीं हैं, अब मेरी
खर्च की लकीर हो रही कुछ टेड़ी,
पहले मन को बहुत दबा लेती थी
अक्सर अब छूट, मैं हूँ दे देती।
तब पाई-पाई का हिसाब थी रखती ,
अब लंगर से निकली, नाव सी है बहती
ज़बान की उड़ान पर पोटली है खुलती,
दबी इच्छा को अब कर लेती है वह पूरी ।
सफर में पहले पराठा लेकर थी चलती,
टिफिन को छोड़ देख खोमचे अब मचलती,
खुलती टेबल पर,कप नूडल्स हूँ ठंढाती,
चुस्कियाँ ले लेकर ज़बान से है सुरकती!
सोचती ,क्या इंसान ऐसे है बदल सकता?
सिक्के गिनने वाली से ये कैसे है हो सकता?
क्या उसे अब कल का भय नही है सताता?
या कुछ इस पल को भी मन जीना है चाहता?
संजोती थी तिनका तिनका वह छुपा कर,
“साँसे गिनी होती है”, कटु सच्चाई भूलकर,
जुदा हुआ साथी जबसे, यूँ मुँह मोड़ कर,
उचट गया भरोसा, कल के औचित्य पर!
अनुभव कहता,क्या पता कब क्या होगा,
जो इस पल है कौन जाने, क्या आगे होगा?
कल की उम्र, उसका रचयिता ही जानता होगा,
“आज-अभी -अब”,बस इतना ही हमारा होगा!
अनूभूति यही,उसे भी है निरंतर खंगालती,
बदल जायेगा कब रास्ता,वह नही है जानती
थमे मोड पर, मनमर्जी कर लेना वह है चाहती
अचंभित हो,वह खुद को ही रहती है निहारती।
शाम सिन्हा
17-12-19

शूरवीरों को नमन!
शक्ति स्तम्भ को देखना है जिन्हें,सशरीर चलते हुए,
तो आकर,हमारे भारत की सीमा पर आपको देखले!
वीर- रक्त सिन्चित संताने, पग-पग सचेत ध्वजा लिये!
द्रृढता से जिनकी, पर्वत भी पाठ हैं नये नित सीख रहे ।,
सागर के ज्वार भाटे नई ऊचाईयों को है ,निरंतर छूते!
प्रशस्त लहरा रहा तिरंगा, हो आश्वस्त इन सींह- वीरों से,
थम जाता समीर हतप्रभ,देख पाषाण-बाजू शमशीरों के!
फूलों की तकदीरों में भी, उभर रहे हैं रग नय तबदीली के,
बढ रही ऊम्र उनकी,हारकर बिखरते नहीं वो अब जमीन पे!
मातृ नमन ,सिर ऊचां कर,कह रहा हिंद सारे संसार से –
“रक्षित द्योढी है हमारी!”,धरा-आकाश, गूंजती यही आवाज है!
“कीर्ति और मान वही, निखरता जिससे सर्वोच्च देश हमारा है!
राधा-सीता, कृष्ण -राम ,सबने दिया एक ही हमेंआदर्श है –
है कर्तव्य, भारत का धर्म और धर्म ही हिंद देश कर्तव्य है !”
जय भारत मां।
जय हिंद के वीर।
शमा सिन्हा
26-01.2020

मात्री दिवस पर-मेरे अनमोल पल!
वह मनाती नित त्योहार है ,अपने उस संसार का
सजा उसका एक घरौंदा है, स्नेह भरा संतानों का!
नाम अनेक पर वह एक ही रुप मे सगर है बसती,
स्नेह दान का व्रत अखंड ,कभी नही वह हैतोडती।
अविस्मरणीय होते हैं उसके कुछ आलोकित पल,
आजीवन संजो रखती जैसे पुष्प,पंखुड़ियों के दल!
जब भी वह पल वह पल याद आता है
सब जैसे, वैसा ही जीवित हो जाता है
वह घड़ी इंतजार व्याकुलता की
अनुभव वह साकार ,छवि है होता
आंखों में सपना सहसा भर है जाता
हटात् ही मुझे असीम खुशी दे है जाता
गर्व से सिर ऊंचा चित् संतोष से भर है जाता ,
सजीव संसार सजेगा, सोच मन है भरमाता
अनुपम कृति मैंने जिसको आकार है दिया
अपनी तन से जिसके तन को मैंने साकार किया
गूंजेगी उसकी किलकारी वह होगा गोद हमारे
बहलाने को उसे दिखाऊंगी टिम टिम नभ के तारे
घर सारा, बिखरा देगा यह सोच कभी खीज जाती
कर ना सकूंगी मैं कोई काम,कमै विचलित होजाती
कुछ नहीं बस उसके पीछे दौड़ते तब हो जाएगी शाम
किंतु यह क्या कम होगा ,मेरे घर आऐंगे ललना राम?
ज्यादा तंग करेंगे तो जोर से पकडूंगी उसके कान
ढुमक ठुमक भागेंगेतो रखलूंगी उसकी जि़द का मान
यह सपना इंतजार का भर देता है सुख से हर धाम
आस देखते ,बातें करते बीतता हर पल हर शाम
………
रात का बस ढाई-तीन ही बजा था
सारा घर शांत निद्रामग्न सोया था
सहसा हुई आहट,लगा वह है आने वाला,
नटखट कृष्ण सा दिखा वह नंदलाला!
शीघ्र उठा दिया मात पिता को बिस्तर से,
कहा उन्हें चलने को अस्पताल जल्दी से!
हड़बड़ा कर पहुंचे हम दूर डॉक्टर के घर,
देख हमें कहा उसने “अभी देरी है, प्रसूति पर!”
“भरती कर दो ड्रिप चलेगा ,नर्स,डाक्टर आयेगा,
तैयारी में टाइम लगेगा,तबतक बच्चा हो जाएगा!”
अभी अभी स्ट्रक्चर पर लेटाया, पर यह क्या,
“बच्चा बाहर आ गया है !”नर्स ने चिल्लाया.
शीघ्र पूरी हुई प्रक्रिया जैसे कृष्ण ने दी मंजूरी
गोद हमारे वह जब आया ,मेरी हुई मन्नत पूरी!
……….
बीता सात वर्ष छह महीने, पुनः सुख आनंद छाया
सौभाग्य उदित बाल जन्म का, फिर मेरे आंगन आया!
प्रातः पहुंचे हम सब चैनित नर्सिंग होम के द्वारे
साथ साथी , अग्रज, सब,सजा सपना नैनो मेँ,
पिछली बार का अनुभव ,सबने था जाना ,
पड़ा ना इस बार किसी को नया कुछ भी बताना
हाथों में इकबार मुझे,प्रभु ने फिर लिया थाम
संकल्प पूर्ण हुआ, संतोष जनित वह शुभ काम।
इस बार थी यश सौभाग्य लेकर वैभव लक्ष्मी आई!
शुभ आशीष पूर्ण कामना पाकर मैं फिर मां बन पाई!
कितनी खुशी ,उमंग , सुख की धूप, मेरेआंचल खिली,
शब्द नहीं बताऊँ, तबसे कैसी असीम खुशी है मिली!