“कहां मुकम्मल जिन्दगी?”

रोज रोज की छेड़ छाड़ मुुझसे ना करो ऐ जिन्दगी तुम्हारी जिद पूरी करने मे खाक होती है जिंदादिली! औरों की उचाईयों को तुम ,छूने की करो ना कोशिशें चाहिए खुशी तो मन को बांधो,समेट रखो ख्वाहिशे ! कर्तव्य के रास्ते में सदा सबके,आती हैं रुकावटें बहुत, टूटता है धैर्य कभी और बचती नही हिम्मत ही साबुुत ! सफलता में औरों के कभी,तौलो नही सक्षमता अपनी, खुद के प्रयास को जोड़ो,सिर्फ उपलब्धियों से अपनी! जीवन तुम्हारा है,औचित्य तुुम्हारा बड़ा! औरों का नही, स्वयं निर्णायक बन,वही करो जो हो तुम्हारे लिए  सही! सपनों के सागर  मे जिन्दगी कभी मुकम्मल  होती नही … Continue reading »“कहां मुकम्मल जिन्दगी?”

“मजाक”(Ranchi  kavya manch)/”ध्यान के अंकुर”(for Mansarover  sahitya)

पल पल घर में गूंजाना  किलकारी! प्रिय बनाना शब्द उच्चारित  सबके, चेहरे पर सजाना ,चमकती मीठीहंसी! तह पर तह सजे सारी ऐसी बात, ए  हंसी तुम आओ  झोली भरके! मीठी यादें भिंंगोये हमारी पलके! वही लौटने को मन चाहे दिन रात जहां फिर हम सब हो जायें सबके! बिछे नही प्रतियोगिता की बिसात हंसी ठिठोली लाये ठहाके सबके बीते समय रसीले ठहाकों के साथ मजाक ना करे टुकड़े किसी दिल के! स्वरचित  एवं मौलिक रचना शमा सिन्हा रांची।

मां

जब भी खुलती हैं आखें तुम्हे काम में व्यस्त देखा जगी रहती हो पहर आठ, तुम ऐसी क्यों हों मां? आंंचल में भर प्रेम अथाह,खड़ी क्यों रहती सदा ? गलतियों को मेरी माफ करने को क्यों  हो अड़ी रहती? अपरिमित मेरी मांगो पर कभी क्यों तुम नही टोकती ? तुुमसे अक्सर मै रूठ जाती,क्यों तुम रूठती नही मां? हमारी मांगे पूरी करती,तुम कुछ क्यों चााती नही,मां? कष्ट अनेक सहे तुमने,फिर वरदान मुझे क्यो मानती मां? हर जिद को हमारी मां, तुम जायज क्यों हो ठहराती? तू भोली नादान ,अपने बच्चों की मनमानी नही समझती! इच्छा हमारी पूरी करने को अपने सपने … Continue reading »मां

होली

हे कृष्ण, तुम  लेकर रंग  ना आना इस  होली पर, कुंज गलिन ने बिछा दिया, चम्पा गुलाब राहों पर ! गिनती करते मैं थक गई,बीते कितने सूने पहर, करना ना तुम बहाना अब देखो टूटे ना मेरा सब्र! “लौटूंगा शीघ्र!” कह कर,छोड़ गये हमें गोकुल में, सखा ढ़ूढ थके तुम्हे,गलियां मथुरा-वृंदावन राहों के! खेलेंगे हम  इस बार  होली, मधुबन की मिट्टी संग हम ग्वालिने लायेंगी, जमुना-जल में मिलाकर भंग! ऐसी चढ़गी मदहोशी तुम पर,भूल जाओगे मथुरा, नंद-यशोदाके संग, सारा बृदावन का बैठायेंगीं पहरा! जैसे बांधा था मैया ने उस दिन तुमको,ओखल संग चतुराई  जो दिखाई तुमने तो भर लेंगे तुमको  अंक! … Continue reading »होली

शिव

निर्विकार  चिरंतन सत्य हो तुम ही! निराकार  रुप का आकार तुम ही! जन्म मृत्यु परे शक्ति पुंज विराम हो! तुम्ही चेतना,अवकाश तुम ही हो! आरम्भ विहीन तुम अनन्त धाम हो! सती कैलाश रमें, कैसे सम्बन्ध विहीन हो? ओंकार स्वरूप, हो आधार सनातन ! सृष्टिकाल से भी तुम हो पुरातन ! दयावान तुम बने, जीव हृदय विराजते अनुभूत जगत तुम  क्यों नही सवांंरते? ना सुख दुख,ना पंचभूत ही व्याप्ते! ओंकार  बन नेपथ्य में हो सदा गूंजते! तुम ही सिद्ध चेतना की हो पुकार! ऋषी मुनिगण के बने वैराग्य साकार! ना तुम जड़ हो ना तुम  हो चेतन! अनन्त सनातन तुम!हो विचार मंथन ! … Continue reading »शिव

जिन्दगी जवाब दो!

पलट कर देखती हूं कभी जब भी तुझे तो देती मैं घबड़ा कर सोचना छोड़ दिमाग के पट बन्द करना हूं चाहती सोच से परे तू भयावह है दीखती अचरज है कैसे तेरे रास्ते मैं गुजरी! कितने पाप किए थे,कितनी गलतियां? पूूछती , क्याऔर कुछ है अब भी बाकी? हिम्मत का क्या यही लिखा होता है हश्र? क्योंकि सब्र का नतीजा होता इतना वक्र ? हां,अपने कर्मो क बोझ तो उठाना होगा और उनके साथ इन सांसों को ढोना होगा हां इतना ही सुकून कोई रोग नही व्यापा! मैं दवा नही खाती,शरीर काम कर रहा! किन्तु वक्त के खिलाफ बहुत … Continue reading »जिन्दगी जवाब दो!

जबसे मुस्कुराना

शिकायतें सारी हो गईं हैं अब पानी हुनर सीखा है जबसे होठो ने धानी दूूर हो जाती है इससे कई परेशानी बिना बोल, बोलती यह ऐसी वाणी ! पास रहता सबके,यह धन होता ऐसा ! फर्क इतना, हम रखते नही अपने जैसा तोलते सुकून से नही, बना बाट पैसा! फिर सख्त होठ दे ना सकेंगे बैन वैसा! आंख देखेंगी,दिमाग पहनेगा नया चोंगा सबसे मिल कर भी गैरियत ही पलेगा पैसे की हवस ने बदला है वह प्यारा जमाना अपनापन बिसराया,हम भूले जबसे मुस्कुराना! 6-2-24

कैक्टस

देख कांटे अनेक उसके सब कहते,”दूर रहो!” पर वह मस्त मौला गुंजारता”मुझसा जियो!” मैनें पूछ ही दिया,”ऐसी क्या बात है तुम में?” बताओ ,क्या है बल,क्यों इतना शोर मचा रहे?” “समझ जाओगी,बस कुछ ठहर जाओ मेरे पास!” मैं चकित थी,स्वर में भराथा उसके स्नेह सुबास। दिखाया उसने,निकट ही खिला उसके गुड़हुल पुष्प। एक पहर बीता,शाम के साथ मुर्झा,वह हुआ शुष्क। “अलविदा दोस्त!”कह, वह सुर्ख स्मित फूल हुआ सुप्त! पूछा कैैकटस ने”अरे, तुम्हारी सुंदरता क्यो हुई लुप्त ?” “काया कोमल थी मेरी! ना सह सकी कटु सूर्य प्रहार ! तुम बलवान हो मित्र!तुम सह सकते हो प्राकृतिक वार! फिर कभी होगी … Continue reading »कैक्टस

खुशियों की सरगम/

आजाने से तुम्हारे,मिजाज हवा का बदल जाता! मन गीत गाता उमंग भरा,माहौल सारा रंग जाता! शीतलता छाती अंबर पर, सूर्य संग झूमने लगता ! तुम जब आती हो मन मेरे, नशा सा है छा जाता! एक गुदगुदी होती चित में, चेहरा खिला चमकता! चंदन लिपट भावनाओं से,चिंतन सहज है करता। तुम आती पल भर ही,पर सब कुछ जैसे बदलता। बजती खुशियों की सरगम,मन नाचने है लगता!

मन परिंदा बन

देख कर उनका चहकना,झूम हूं उठती ! लगता है जैसे पैरों में उनके पायल है बंधी ! गूंजती है कानों में ऐसी चंचल नई सी धुन। जैसे पके मीठे दानों की माला रहा कोई बुन! झाड़ियों में कूद कूद कर हलचल हैं मचाती जाने कितनी बातें सखियों को हैं बताती! फिर जैसे जैसे सूर्य लगता अवसान में डूबने, अपने घोसलों को लगती ये सब भी खोजने! पत्ते भी साथ ही इनके स्थिर खामोश हो जाते। क्षितिज की लाली के साथ जब फिर सब उड़ते मेरा मन परिंदा बन, इनके साथ ही उड़ जाता! 4-2-24