मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

हो रहा मानव विकराल, लेकर अपनी भूख को। भूल गया है वह नैतिकता की सारी चौखट को।। दारू और व्यसन को खरीदा, देकर उसने ईमान। स्वदेश-सुखद-भविष्य का किया स्वयं देहावसान।। समाज को  बढ़ते देख निघृष्ट अंधेरे दिशा  में ऐसे। घिरी निराशा से,मैं उकताने लगी हूं ऐसी जिंदगी से ।। पचहत्तर साल की स्वतंत्र विधा ने पाया है बस हमसे। लूट-खसोट, छीना-झपटी,अनन्याय,अत्याचार तरीके।। भूला  प्रताप, शिवाजी, अहिल्या रानीझांसी इतिहास । करते रहे मन से परतंत्र पराधीनता का कारागार वास।। अनभिज्ञ विरासत से,गाते रहे आक्रमणकारियों का दंश। भूला सगर, दिलीप,विक्रमादित्य,लाजपत, वल्लभ वंश।। रख कर स्वदेश स्वाभिमान ताक पर, तुच्छ अज्ञानता से। देख सामाजिक … Continue reading »मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

परेशानी

किसकी बात करें,किसको हम भूलें पेशानी पर छाई रहती सबकी लकीरें, हटा सकते नहीं हम सम्बन्ध का जाल मन के हर कोने ने रखा इनको पाल। किसी का आना हो,किसी का जाना अपेक्षित परिणाम की जगती है वासना शब्द के जाल बन जाते श्वासो पर फन्दे, माथे पर बूंदें उभरती हैं जब वो हैं गूंजते! सुलझा सकते नहीं इन्हें, अनेक गांठ डालते, इच्छाओं की फरियाद के साथ घुटते रहते ! 23.5.24

मजदूर

चौराहे पर गाड़ी हमारी रुकी हुई थी हम अंदर बैठे, सपरिवार ठंडी हवा ले रही थीं खड़े ट्रक पर हमारे भवन की गिट्टी लदी थी उस पर एक मज़दूरिन,बदहवास पड़ी थी! “मई महीने की धूप फिर भी ऐसी नींद! अजब रचना है , गिट्टी भी नहीं जाती बींध!” मेरी बगल में बैठे मेरे पति ने सहसा टोका मैंने उसको देखा और अपनी स्थिति भांपा! धात्री-तन से चिपका था एक नन्हा शिशु आश्वस्त,   उसका विश्वास कर रहा था मेरे अहं को ध्वस्त ! ईश्वरीय विविधता पर, मैं शब्द विहीन थी मूक! समझ ना पाई सहानुभूति दिखाऊ या करूं दु:ख? चौराहे … Continue reading »मजदूर

नया सवेरा

आज जब सूरज आया, जगाने लेकर नया सवेरा, मुुग्ध देख ,उसकी छटा निराली देने लगी मैं पहरा! स्नेेह अंजलि मध्य समेट चाहा  उसे  घर लाना! वह नटखट छोड़ मुझे चाहा आकाश  चढ़ना! होकर  मैं लाचार, लगी देख ने उस की द्रुत चाल, सरसराता निकल गया वह,भिंगोकर  मेरी भाल! “तुुमही जीत  गये मुझसे!” कहा उससे मैनें पुकार । “अभ्यास कर्म है नित का!”बताया सूूर्य  ने सार ” कर्त्तव्य करो!तुलना करने से ही सब जाते हैं हार! चरैवेती!चरैवेती!कर्म-चेतना करेगी हर कठिनाई  पार!”

“कहां मुकम्मल जिन्दगी?”

रोज रोज की छेड़ छाड़ मुुझसे ना करो ऐ जिन्दगी तुम्हारी जिद पूरी करने मे खाक होती है जिंदादिली! औरों की उचाईयों को तुम ,छूने की करो ना कोशिशें चाहिए खुशी तो मन को बांधो,समेट रखो ख्वाहिशे ! कर्तव्य के रास्ते में सदा सबके,आती हैं रुकावटें बहुत, टूटता है धैर्य कभी और बचती नही हिम्मत ही साबुुत ! सफलता में औरों के कभी,तौलो नही सक्षमता अपनी, खुद के प्रयास को जोड़ो,सिर्फ उपलब्धियों से अपनी! जीवन तुम्हारा है,औचित्य तुुम्हारा बड़ा! औरों का नही, स्वयं निर्णायक बन,वही करो जो हो तुम्हारे लिए  सही! सपनों के सागर  मे जिन्दगी कभी मुकम्मल  होती नही … Continue reading »“कहां मुकम्मल जिन्दगी?”

“मजाक”(Ranchi  kavya manch)/”ध्यान के अंकुर”(for Mansarover  sahitya)

पल पल घर में गूंजाना  किलकारी! प्रिय बनाना शब्द उच्चारित  सबके, चेहरे पर सजाना ,चमकती मीठीहंसी! तह पर तह सजे सारी ऐसी बात, ए  हंसी तुम आओ  झोली भरके! मीठी यादें भिंंगोये हमारी पलके! वही लौटने को मन चाहे दिन रात जहां फिर हम सब हो जायें सबके! बिछे नही प्रतियोगिता की बिसात हंसी ठिठोली लाये ठहाके सबके बीते समय रसीले ठहाकों के साथ मजाक ना करे टुकड़े किसी दिल के! स्वरचित  एवं मौलिक रचना शमा सिन्हा रांची।

मेरा मन

जाने क्यों यह मन बहुत परेशान  हो जाता है कुछ  नही बस में किंतु निदान खोजता रहता है समझा समझा कर मै हारी,मानना नही चाहता जाने क्यों इस भेद को स्वयं सुलझाना चाहता है! कर्मो  ने लिख दिया है नियती की दिशा का नाम उसे हमारी इच्छाओं से नही कुछ भी काम ! लाख तुम  सोचो, अपने अहं  को सहेजते रहो, गिनते रहो अपने दुःख, उम्मीद लेकर तड़पो, तुम्हारा यह मन ,तुम्हे असहज बना कर रखेगा, इसके साथ उलझते सारा समय  बीत जायेगा! चाहत है अगर  शांति से  वक्त गुजारने का हौसला मन को रखो अनुशासित, ना दो इसे मनमाना … Continue reading »मेरा मन

मां

जब भी खुलती हैं आखें तुम्हे काम में व्यस्त देखा जगी रहती हो पहर आठ, तुम ऐसी क्यों हों मां? आंंचल में भर प्रेम अथाह,खड़ी क्यों रहती सदा ? गलतियों को मेरी माफ करने को क्यों  हो अड़ी रहती? अपरिमित मेरी मांगो पर कभी क्यों तुम नही टोकती ? तुुमसे अक्सर मै रूठ जाती,क्यों तुम रूठती नही मां? हमारी मांगे पूरी करती,तुम कुछ क्यों चााती नही,मां? कष्ट अनेक सहे तुमने,फिर वरदान मुझे क्यो मानती मां? हर जिद को हमारी मां, तुम जायज क्यों हो ठहराती? तू भोली नादान ,अपने बच्चों की मनमानी नही समझती! इच्छा हमारी पूरी करने को अपने सपने … Continue reading »मां

“ओ अश्रृंखल बादल!”

मकर रेखा से उत्तर दिशा में कर रही था अविका गमन, तभी बादलों के  बीच क्योंकर करने लगा रवि रमण ? बसंत आया ही था कि नभ पर हुई शयामला रोहण! “हितकर नही होता इस वक्त मेघों का जल समर्पण !” कह उठी धरा उठा हाथ,अपनी हालत श्यामल मेघ से। पर वह उच्चश्रृंखल करने लगा मनमर्जी बड़े वेग से! तेेज हवा कहीं,द्रुत बवंडर,पड़ने लगे तुफान संग ओले! “अरी,ओ हवा क्यों आई तू बन सयानी  सबसे पहले? तेरे कारण  ढका मेघ ने,आदित्य को,ओढ़ा कर दुशाले! बरबस बिजली को चपल चमकना पड़ा सबके अहले! आ रही थी खेलने सरसों , नन्ही धनिया के … Continue reading »“ओ अश्रृंखल बादल!”

जो हो नही सकता वही तो करना है!

मन लगाता आकाश परे छलांग ले लेते हैं सपने रूप सांगोपांग ! लालच के जाल में जीव तैरता रहता, भोगी बना,योगी का स्वांग है रचता! धरा पर  वह स्वर्ग  उतारना चाहता मृग बना मरीचिका सदा है खोजता! समेटकर अथाह ,वह रहता है प्यासा! अपनी युक्ति से खुद को देता है झासा! इस शरीर  से वह रखता है अथाह  मोह। हराने को नियती, वह पथ पर रखता टोह! दृष्टि पाकर ,विहीनअन्तर्मन ज्योति डोलता सत्य परिचित होकर भी वर्चस्व मद लोटता! विवेक शून्य वह पृथ्वी को अपनी सम्पत्ती बना, लोक लाज  मर्यादित ध्वनित  को वह नकारता, वासना की श्वास संग वह आसमान … Continue reading »जो हो नही सकता वही तो करना है!