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“निदान की उलझन”

जाने क्यों पुनः घूम कर आ जाती है समस्या पूर्णिमा के बाद  जैसे आती है अमावस्या! लगता है एक क्रम में सजा हैं सारा विधान जिसमें निश्चित है उतार चढ़ाव का परिमाण। जहां एक खत्म होता है वही से होता प्रारंभ, नाचता है जीवन सदा लिए हुए अपना दंभ! पाकर सुख कैसे संघर्ष की यादें ढक जाती हैं वहीं से अंजान नई  कहानी शुरू हो जाती है! इस  तमाशे का चक्र आजीवन चलता रहता है नये  से परिचित कराकर, पहला चला जाता है! “सब सुलझ जायेगा!” उम्मीद  दिन बीतते हैं! तमाशबीन बने हम तस्वीर बदलते देखते रहते हैं! पता ही … Continue reading »“निदान की उलझन”

जलेबी और  समोसे की सगाई

हो रहा था बसन्तआगमन शुुक सवार कामदेव का! खिले अनेक थे फूूल,चख रहा था रस मधुकर मधु का! गुजरा तभीआकाश से,पुुष्पाच्छादित कामदेव रथ था। कलकत्ता गलियों में छन रहा था गर्मा गर्म  समोसा! हवा ने की ठिठोली, लेकर खुशबू ढेरआचल में समेट, ठुुमकती लहराती वह पहुंची, कामदेव को करने भेंट! “वह क्या बन रहा है,रथी?”पूछा कामदेव ने बेचैनी से। “वहीं से तो मैं आ रही!”धीरे से कहा चंचला हवा ने। ” लीजिए, आपके लिए मैं लेआई बांध इसे आचल में, बहुत नायाब है यह पकवान! स्वाद अनोखा साथ में!” मशहूर” दुकानों  के सिंघाड़ों ने एकसाथ जोर से पुकारा, “वैलेंटाइन डे … Continue reading »जलेबी और  समोसे की सगाई

जो हो नही सकता वही तो करना है!

मन लगाता आकाश परे छलांग ले लेते हैं सपने रूप सांगोपांग ! लालच के जाल में जीव तैरता रहता, भोगी बना,योगी का स्वांग है रचता! धरा पर  वह स्वर्ग  उतारना चाहता मृग बना मरीचिका सदा है खोजता! समेटकर अथाह ,वह रहता है प्यासा! अपनी युक्ति से खुद को देता है झासा! इस शरीर  से वह रखता है अथाह  मोह। हराने को नियती, वह पथ पर रखता टोह! दृष्टि पाकर ,विहीनअन्तर्मन ज्योति डोलता सत्य परिचित होकर भी वर्चस्व मद लोटता! विवेक शून्य वह पृथ्वी को अपनी सम्पत्ती बना, लोक लाज  मर्यादित ध्वनित  को वह नकारता, वासना की श्वास संग वह आसमान … Continue reading »जो हो नही सकता वही तो करना है!

मुखौटा

बनाई थी उसने हमारी तस्वीर  एक प्यारी जाने कितने रंग इसपर चढ़ गये मनमानी! कुछ  जमाने की जरूरत ने जरूरी समझी कई संग लाई प्रतियोगितात्मकता की कूची ! अपने को सर्वोत्तम सिद्ध  करने की दौड़, उड़ा ले गई वह मां के हाथ का चिड़िया कौर रंगीन श्रृंंगार का तह बन चेहरे पर  छाई! कोमल मुस्कान एक तह तले छिप गई , स्नेहिल रिश्ते हटा व्यवहारिकता आई! प्राकृति की देन बन गयी कजरी काई,  वास्तविता की हंसी सबने ही है उड़ाई! फटे पाकेट में ठहरती नही सच्ची पाई! कहने को रिश्ते की गिनती अनेक होती , सब पर एक चादर मोटी है चढ़ी रहती ! … Continue reading »मुखौटा

मनमानी नियती की

कौन कहता है नियमित होतीहै नियती! वह मतवाली मनमानी कुछ भी कर बैठती! दौड़ने में साथ उसके मानव भटकता ही रहता वह मेहनतकश कमाता,कभी सहेजा करता ! झांक गिरेबान अपना जब भी आप  देखेंंगे, हरबार खुद को चौराहे पर खड़ा पायेंगे! देख कर सबको वह बेवफाई से है हंसती , परिस्थिति देती उलझनें  पर नही सुलझाती ! थका शरीर  जवाब  दे देता जब स्थिरता आती पर्दे में छुपी, पहले बहुत सारे रास्ते दिखाती है। आगे बढ़ने पर मकड़ी की जाले में बांध लेती है। कभी निवाले को तरसाती,कभी माया मेंबांधती, कदम कदम पर प्रश्न कर उकसाती ही रहती! छुपा छुपी में … Continue reading »मनमानी नियती की

तेरी हर बात  अच्छी लगती है!

नविका,हमारे घर की तू ही जान है  ! हमारे  जीवन का उल्लासित श्वास है! तुझसे ही बनी हर खुशी की आस है! तेरी बातों में हरश्रृंगार  सी बास  है! तेरे हर कदम में  गूंंजता सुरीला घुँघरू ! चाहता मन बस हर पल तुझे ही दुलारू ! देने को आशीष तुझे सदा मन है पुकारा! तूने बनाया मेरा प्रति दिन हर पल प्यारा! तू है बहुुत भोली,निर्विकार तू समझदार है ! तुझे ईश्वर की तरह सबसे ही प्यार है! तू सबकी दुलारी ,नन्ही परी है गुड़िया! मिठास भरी, मक्खन मिश्री की डलिया! सदा खुश  रहो,देती यही तुम्हे आशीष ! यूंही बनी … Continue reading »तेरी हर बात  अच्छी लगती है!

शिव

निर्विकार  चिरंतन सत्य हो तुम ही! निराकार  रुप का आकार तुम ही! जन्म मृत्यु परे शक्ति पुंज विराम हो! तुम्ही चेतना,अवकाश तुम ही हो! आरम्भ विहीन तुम अनन्त धाम हो! सती कैलाश रमें, कैसे सम्बन्ध विहीन हो? ओंकार स्वरूप, हो आधार सनातन ! सृष्टिकाल से भी तुम हो पुरातन ! दयावान तुम बने, जीव हृदय विराजते अनुभूत जगत तुम  क्यों नही सवांंरते? ना सुख दुख,ना पंचभूत ही व्याप्ते! ओंकार  बन नेपथ्य में हो सदा गूंजते! तुम ही सिद्ध चेतना की हो पुकार! ऋषी मुनिगण के बने वैराग्य साकार! ना तुम जड़ हो ना तुम  हो चेतन! अनन्त सनातन तुम!हो विचार मंथन ! … Continue reading »शिव

“उम्मीदों का दिया”

उम्मीद का दिया जला कर है रखा बहते नीर को कभी नही है रोका यह नही कह कभी सकती मैं, आस सदा के लिए थी दफ़्न हुई ! हां इच्छा को दबाने की कोशिश से मिजाज रूखा सा जरूर हुआ था! चांद बिखेेरता था अपनी रौशनी ! सितारे भी थे तब संंग टिमटिमाते! चांदनी शर्म की चादर ओढ़े रहती, बोलने की कोशिश कर ही रही थी, तबतक सूर्य किरणों ने दस्तक  दे दी! संकोच में ही सारे ख्वाब सिमट गये! दिन महीने रिवाजों के आगोश छिपे! धारा बदल गई, यादो के गिरफ्त में! जिन्दगी साथ बिताने का नाम बदला! बदल … Continue reading »“उम्मीदों का दिया”

यादों के झरोखे से

कई एक चित्र सामने आ जाते हैं। जब जब झरोखों को खोलते हैं! तब कन्या जन्म ना था शकुन , पर रखा उन्होने बना प्रेम-प्रसून ! जन्म पर दिया डाक्टर को कंगण, त्योहार सा बना दिया वातावरण ! मैं गुड़िया छोटी सी ,फ्राक पहने , धारीदार स्वेटर, कलाई पर गहने! पापा बनाते मेरे लिए अनेक गाने। अपनी ही धुन मे लगते थे वे सुनाने! “छम-छम गुड़िया छम-छम चली” नाच उठती थी मैं बन खुशी की डली! चारो ओर पलंग के, मस्त मैं थिरकती परियों सी,बालों को फूूलों से मां संवारती ! गोल गोल नांच कर,फ्राक को मैं फैलाती! अचानक चकराकर,धम्म … Continue reading »यादों के झरोखे से

जिन्दगी जवाब दो!

पलट कर देखती हूं कभी जब भी तुझे तो देती मैं घबड़ा कर सोचना छोड़ दिमाग के पट बन्द करना हूं चाहती सोच से परे तू भयावह है दीखती अचरज है कैसे तेरे रास्ते मैं गुजरी! कितने पाप किए थे,कितनी गलतियां? पूूछती , क्याऔर कुछ है अब भी बाकी? हिम्मत का क्या यही लिखा होता है हश्र? क्योंकि सब्र का नतीजा होता इतना वक्र ? हां,अपने कर्मो क बोझ तो उठाना होगा और उनके साथ इन सांसों को ढोना होगा हां इतना ही सुकून कोई रोग नही व्यापा! मैं दवा नही खाती,शरीर काम कर रहा! किन्तु वक्त के खिलाफ बहुत … Continue reading »जिन्दगी जवाब दो!