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“उम्मीदों का दिया”

उम्मीद का दिया जला कर है रखा बहते नीर को कभी नही है रोका यह नही कह कभी सकती मैं, आस सदा के लिए थी दफ़्न हुई ! हां इच्छा को दबाने की कोशिश से मिजाज रूखा सा जरूर हुआ था! चांद बिखेेरता था अपनी रौशनी ! सितारे भी थे तब संंग टिमटिमाते! चांदनी शर्म की चादर ओढ़े रहती, बोलने की कोशिश कर ही रही थी, तबतक सूर्य किरणों ने दस्तक  दे दी! संकोच में ही सारे ख्वाब सिमट गये! दिन महीने रिवाजों के आगोश छिपे! धारा बदल गई, यादो के गिरफ्त में! जिन्दगी साथ बिताने का नाम बदला! बदल … Continue reading »“उम्मीदों का दिया”

यादों के झरोखे से

कई एक चित्र सामने आ जाते हैं। जब जब झरोखों को खोलते हैं! तब कन्या जन्म ना था शकुन , पर रखा उन्होने बना प्रेम-प्रसून ! जन्म पर दिया डाक्टर को कंगण, त्योहार सा बना दिया वातावरण ! मैं गुड़िया छोटी सी ,फ्राक पहने , धारीदार स्वेटर, कलाई पर गहने! पापा बनाते मेरे लिए अनेक गाने। अपनी ही धुन मे लगते थे वे सुनाने! “छम-छम गुड़िया छम-छम चली” नाच उठती थी मैं बन खुशी की डली! चारो ओर पलंग के, मस्त मैं थिरकती परियों सी,बालों को फूूलों से मां संवारती ! गोल गोल नांच कर,फ्राक को मैं फैलाती! अचानक चकराकर,धम्म … Continue reading »यादों के झरोखे से

जिन्दगी जवाब दो!

पलट कर देखती हूं कभी जब भी तुझे तो देती मैं घबड़ा कर सोचना छोड़ दिमाग के पट बन्द करना हूं चाहती सोच से परे तू भयावह है दीखती अचरज है कैसे तेरे रास्ते मैं गुजरी! कितने पाप किए थे,कितनी गलतियां? पूूछती , क्याऔर कुछ है अब भी बाकी? हिम्मत का क्या यही लिखा होता है हश्र? क्योंकि सब्र का नतीजा होता इतना वक्र ? हां,अपने कर्मो क बोझ तो उठाना होगा और उनके साथ इन सांसों को ढोना होगा हां इतना ही सुकून कोई रोग नही व्यापा! मैं दवा नही खाती,शरीर काम कर रहा! किन्तु वक्त के खिलाफ बहुत … Continue reading »जिन्दगी जवाब दो!

जबसे मुस्कुराना

शिकायतें सारी हो गईं हैं अब पानी हुनर सीखा है जबसे होठो ने धानी दूूर हो जाती है इससे कई परेशानी बिना बोल, बोलती यह ऐसी वाणी ! पास रहता सबके,यह धन होता ऐसा ! फर्क इतना, हम रखते नही अपने जैसा तोलते सुकून से नही, बना बाट पैसा! फिर सख्त होठ दे ना सकेंगे बैन वैसा! आंख देखेंगी,दिमाग पहनेगा नया चोंगा सबसे मिल कर भी गैरियत ही पलेगा पैसे की हवस ने बदला है वह प्यारा जमाना अपनापन बिसराया,हम भूले जबसे मुस्कुराना! 6-2-24

कैक्टस

देख कांटे अनेक उसके सब कहते,”दूर रहो!” पर वह मस्त मौला गुंजारता”मुझसा जियो!” मैनें पूछ ही दिया,”ऐसी क्या बात है तुम में?” बताओ ,क्या है बल,क्यों इतना शोर मचा रहे?” “समझ जाओगी,बस कुछ ठहर जाओ मेरे पास!” मैं चकित थी,स्वर में भराथा उसके स्नेह सुबास। दिखाया उसने,निकट ही खिला उसके गुड़हुल पुष्प। एक पहर बीता,शाम के साथ मुर्झा,वह हुआ शुष्क। “अलविदा दोस्त!”कह, वह सुर्ख स्मित फूल हुआ सुप्त! पूछा कैैकटस ने”अरे, तुम्हारी सुंदरता क्यो हुई लुप्त ?” “काया कोमल थी मेरी! ना सह सकी कटु सूर्य प्रहार ! तुम बलवान हो मित्र!तुम सह सकते हो प्राकृतिक वार! फिर कभी होगी … Continue reading »कैक्टस

खुशियों की सरगम/

आजाने से तुम्हारे,मिजाज हवा का बदल जाता! मन गीत गाता उमंग भरा,माहौल सारा रंग जाता! शीतलता छाती अंबर पर, सूर्य संग झूमने लगता ! तुम जब आती हो मन मेरे, नशा सा है छा जाता! एक गुदगुदी होती चित में, चेहरा खिला चमकता! चंदन लिपट भावनाओं से,चिंतन सहज है करता। तुम आती पल भर ही,पर सब कुछ जैसे बदलता। बजती खुशियों की सरगम,मन नाचने है लगता!

मन परिंदा बन

देख कर उनका चहकना,झूम हूं उठती ! लगता है जैसे पैरों में उनके पायल है बंधी ! गूंजती है कानों में ऐसी चंचल नई सी धुन। जैसे पके मीठे दानों की माला रहा कोई बुन! झाड़ियों में कूद कूद कर हलचल हैं मचाती जाने कितनी बातें सखियों को हैं बताती! फिर जैसे जैसे सूर्य लगता अवसान में डूबने, अपने घोसलों को लगती ये सब भी खोजने! पत्ते भी साथ ही इनके स्थिर खामोश हो जाते। क्षितिज की लाली के साथ जब फिर सब उड़ते मेरा मन परिंदा बन, इनके साथ ही उड़ जाता! 4-2-24

मुझे शिकायत है!

ऐ मन ,तू रहता सदा साथ मेरे ! रहूं भीड़ में या होती हूं अकेले! मित्र मेरा, तू ही एक है अंतरंग! फिर क्यों करता है मेरा चैन भंग ? तुुझसे छुपी नही मेरी कोई बात। चलता रहता संंग चारो पहर साथ ! याद रखना किंतु मेरी एक बात, बांधले पल्लू में अपने तू यह गांठ ! अब जगाना छोड़ दें मुझे देर रात! तेरी यही आदत परेशान करती है! तुझसे इसीलिए ही ,मुझे शिकायत है! सीमा सिन्हा 5-2-24

My road to my right

The only weapon in Mother’s arms I had Were tears and howls to make all feel bad My parents were irritated and very sad To calm me down ,tactfully tricks they tried ! Milk and water was all they would offer, While I watched, their plate with pizza savour! This was enough for my anger to tower! Gradually some cereals rested on my platter. With less salt and sugar taste wasn’t “chater pater!” Annoying still when glasses of milk got fewer! My growth was good, I toddler with support. With smell,I could delicacies on table sort! Reached for bowls on … Continue reading »My road to my right

“Pearls of compassion “

Why is there always a complaint,”I am hurt!” When except you and me,there’s no third? We are the closest yet we forget that to see! Your perceptions are as true,as my thoughts and me!” Let’s start once again anew, moredetermined ! Leaving behind old obstacles that thwarted! Let past no more remain in our pleasant present ! Let’s both accept and console what we lament! “Breathe compassion forcefully into clouded sky! Get drenched in their soothing rains as we fly!”