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“श्रावणी रास “

रास रचाने गोपी संग,आकाश विशाल पर छाये! सुन कर रुक गई हवा, कृष्ण जो अपनी बंसी बजाये, श्यामल रंग भर गई फिजा,पुनः वृंदावन रास रचाये! हर एक घटा संग नाचे माधव,सबका मन भरमाये, धन्य हुईं सब बालायें,केशव जब लगे उन्हें नचाने ! लगी बरसने मधु-चांदनी, नव धारा अमृत की बहने, खिली पुष्प कलियां सतरंगी, रात को आईं महकाने, कुुुहुकी काली कोयल,हरी धरा को जैैसे आई बहकाने! आनन्दोत्सव हुआ उमंगित,चली लक्षमी खेत को भरने! घटा ने जो पुकारा , मयूर बन श्याम राधा संग दौड़े आये, वृन्दावन की कुंजगली गूंजी कान्हा की बंसी धुन से! जितनी गोपी,उतनी राधा थिरक रहे गलबइयां … Continue reading »“श्रावणी रास “

अहंकार

अहंकार आत्म हनन कर उगता चित्त में जो विचार ,पंच तत्व काया समझता मानव जीवन-सार,विस्मृृत चेतना कर जब जीवन उलझता माया जाल,बन्धन से तब बांध लेता अहंकार का काल! शमा सिन्हा30 -6 -23

“मौन”

मौन में होता है सन्निहित उत्तर, उठते हर प्रश्नका! जीवन की सभी परिस्थिति,हर तूफान का! छिपि है इसमें शक्ति अपरिमित ,तेज धैर्य का! बोल से ज्यादा अभिव्यक्ति,शौर्य सहनशीलता का! मौन सूचक है, अंतरनमन स्वाभिमान की पराकाष्ठा का! है प्रकाश-ध्वजा अजय यह,आकाश से ऊँचा मनोबल का! शब्द हीन होकर भी विस्मित अभिव्यक्ति है यह स्वमत का! शमा सिन्हा29-6-23

कृष्ण का विरह

“कृष्ण का विरह” दिखाए नही जग को कृष्ण ने अपने हृदय के घाव, अबोध उम्र मे छूटे ग्वाल-बाल, ममता भरी छांव,! कर्म – बन्धन में बांध रोक लिया लल्ला नेआंसू अपने, पर मन में बसा कर चल दिए ,यमुना-बालसखा के सपने! पीछे छूटा यमुना तट, विशाल कदम्ब की छैया सूनी, ब्रम्ह होकर भी ना रोक सके नियती की होनी! अविरल बहा आंसू , रहे रोकते विह्वल नंद-यशोदा , रथ आरूढ दाऊ संग होकर, लेकर चले सदा के लिए विदा! ” कंस वध कर लौट शीघ्र लौटूंगा !” किया कान्हा ने वादा। गोकुुल वासी समझ ना पाये, नियति का रास्ता ! … Continue reading »कृष्ण का विरह

योग अभ्यास

अज्ञात का ज्ञान है योगआत्मा से पहचान का संजोग,निरंंतरअभ्यास से कर प्रयोग,अंतर्दृष्टि का नित होता नियोग। अंगों का बनता ऐसा समीकरणशरीर सेआत्मा का दिखता व्याकरण !होता शक्तिशाली जितना आत्म बल।क्षिण होता उतना ही माया का छल। इच्छायें पल पल होती जाती क्षिणविलग तन से आत्म ज्ञान ,बनते जैसे जल और मीन ।मिट जाता क्लेश, पल क्षिण उठती चिंता,सत्य प्रतिष्ठित हो जाती है कृष्ण की गीता! शमा सिन्हा।21-6-23

रथ यात्रा

देेखो,चले हमारे कृष्ण ननिहाल !लेकर सबका स्नेह हजार !साथ में हैं बलदाऊ , सुभद्रा।उमंगअटूट हृदय सबके भरा। रथ खींच रही,भक्तन की भीड़ सारी,उमड़ा जन सैलाब, हृदय असुवन से भारी। “रह न जाना कान्हा, लौट घर जल्दीआना!बाट तकत दिन बीतेगा,सूनी होगी रैना! सूना होगा मंदिर, सूनी रहेगी नगरी!तुम रहोगे दूूर,तो कित बजेगी बांसुरी?” शमा सिन्हा20- 6 -23

मां का परिवार

मेरा परिवार, मेरी ताकत! मेेरी आखें थी नींद से बोझिल,सामने पड़ी खुली किताब थी,सहसा स्नेह स्पर्श,नयन सजल,लेेकर बुलाने आई मेरी मां थी! “कल भी पर्चा देने भूखी ही गई थी।क्या यूहीं जगी आखों से रात काटोगी?चलो,साथ मिलकर दो कौर खालें!”पाकर स्नेह ,मन हुआ ममता के हवाले! वही है नींव,स्थिर चेतना शक्तिपीठ !हर परीक्षा में ,हर स्तिथि में वही सबकी मीत!परिवार की प्रभा- प्रतिम,आता उसे गांठ मिटाना,कठिनाई में भी जानती वही कुल समेटना ! एक मां ही रचती ऐसा जागृत परिवार ,पाषाण सा होता नींव ,छत,चारो दिवार! भारत की मां का है इतना बलशाली आचार,सुसंस्कृत विचारों से रचित होता हर परिवार … Continue reading »मां का परिवार

जादू

किसे कहते हैं जादू ,विश्वास ही समझो, है इसकी परिभाषा! वस्तु हो जाए पल मे दृष्टि परे,मिट जाए पाने की आशा, आये होश तो ठिठक कर रहे हम कोना कोना खोजते! जैसे कोई हमारे हाथो से लेकर चला गया हो लपक के! ! अभी मैने देेखा उसे,सुना था उसकी आवाज पास ही गिरते! सोने की बनी नाक की कील, उसमे जड़ी हीरे की कनी चमकते! बहुत हड़बड़ी थी,सोचा अभी लौट कर जतन से खोजूंगी, नही जानती थी उसे कितना भी खोजू कभी ना पाऊंगी! फिर न दिन-रात का रहता फर्क,ना थकावट -नींद की होती, बिन बोले सबको मेरी आखें मेरी … Continue reading »जादू

“तुम बिन “

पंछी बन अकली,आसमान छानती हूं तुम्हे छोड़ कोई और नही चाहती जिसे हूं। दुनिया के मेले में,बस तुम्हें ही ढूँढ़ती हूं तुम्हे ना पाकर निर्रथक हो जाती हूं। जाने कैसा है यह विश्वास मोहन हर वक्त बैचैनी छाई हुई है आंगन,! जानती तुम्हे हूं बसे तुम हो कण कण ! इसी विश्वास से घिरी मैं आस के वन! सुन कर पुकार मेरी आओगे एक दिन!

नन्ही कलियों से प्रश्न

सब्ज बाग की खिलती कलियों से मैनें पूछा यूं अचानक तुम सब अकेले आई कैसे आई? कल तक हर डाली थी विरान और खाली , अकस्मात कैसे मुस्काई तुम्हारी सब सहेली! सूना था बागीचा,टूटी थी किसलय की आशा जाने कैसे सुन ली तुमने मेरे मन की आकांक्षा! हर डाली पर गुलदस्ता बन छाई पल भर में इतनी सहेलियों को कहां से ले आई? क्या मेरे मन का तार जुडा तेरी जड़ से जो पंखुड़ियों को तेरी,रखे जोड़ पत्री टही सूना था बगीचा अनुपस्थित थी पूर्व की। क त