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रहे गई है कुछ कमी

नित करती हूं मैं नियम अनेक फिर भी पाती नहीं  तुम्हे देख। मेरे कान्हा करती हूं क्या ग़लती, व्याकुल यूं क्यों होकर मैं फिरती? कहो तुम्हारे वृन्दावन में ऐसा क्या, गोपाल बने मटकते वन में जहां? माना अच्छा ना था भोग हमारा पर अब तो हैं मेवा मिश्री भरा! रखती मैं तुम्हारी सेवा में वह सब, कृपा से तुम्हारी मेरे पास है अब। हां, ध्यान नहीं लगा पाती मैं ज्यादा भूख पीछे से पकड़ लेती मन सादा। तुम से हटकर, भोजन में मन है बसता शायद तू भी प्रेम-कृपा नहीं है करता! चाहती हर पल मैं,तेरा ही दर्शन करना,   … Continue reading »रहे गई है कुछ कमी

           “मन को पत्र “

तुझको समझाऊ कैसे रे मन ,तू मेरा कैसा मीत, परिंदों की उड़ान,श्रावण समीर या है गौरैया गीत ? उड़ा कर साथ कभी ले चलते मुझको, इंद्रधनुष को छूने, घर के छत से बहुत ऊपर खुलते झरोखे जिसके झीने। बिना रोक टोक के चलतीं जहां, चारों दिशाओं से हवाएं, चमकती है चांदनी जहां से, और टपकती ओस की बूंदें। बिजली की धड़कन में छुपा स्वाति का घर है जहां पर। भींच कर बाहों में, सीने से लगा,भर लेता,अंक  अपने समाकर! लड़ियां जुगनू की लटकी है जहां बहार के मण्डप पर। तू उमंगित करता मुझको आस-सुवासित जयमाल पहनाकर । मनमौजी तू,,चल देता … Continue reading »           “मन को पत्र “

“मुझे चाहिए!”

एक सखा  सौहार्दपूर्ण चाहिए जो सुन ले। मेरी हर बात अपने पास सुरक्षित रख लें।। गलतियों को मेरी ढक कर दफन जो कर दे। दुखते जिगर के तार को स्पर्श कर सुकून दे ।। गम्भीर उसके बोल यूं हृदय में मेरे पैठ जायें। सुनकर जिसे मिट जायेअपेक्षा-मनोव्यथायें।। हो उसके पास ऐसा वह धन, सन्तोष की ताबीर। रंग दे सहज मन को खुश्बू में जैसे गुलाल-अबीर।। जरूरी नही,रहे वह गिरफ्त में मेरे पास सदा। लेकिन करले स्वीकार मेरी अच्छी-बुरी अदा।। तटस्थ वह रहे सदा जैसे सूर्य का नया सवेरा। भरा हो जिसमें चहचहाहट , मुस्कुराता चेहरा।। मेरे हर अनुभव को कर … Continue reading »“मुझे चाहिए!”

काव्यमंचमेघदूत विषय -#चित्रलेखनदिनांक -25.9.24 ‌‌ “बादलों की बाहों में “ पहाड़ोंसे मिलने मैं जा पहुंची घाटी से दूर।पसरी धरती यूं सजी जैसे कोई चपल हूर।। रूई की गठरी से ढके आकाशीय दरख़्त ।देख मन मेरा, हुआ कुछ पल भय आक्रांत।। जैसे उतर रहा हो आकाश, ऐसा था नजारा।अचानक मिलने धरा से वह हो गया बांवरा।। चला समीर बन द्रुतगामी,बहा ले गया साथ।मंत्र-मुग्ध मदहोश,चल पड़ी थामें उसका हाथ।। शीतल उसके स्पर्श ने कंपकंपाया मुझे एक बार।निकला पथ अपने फिर तोड़ मेरी बेहोशी का तार।। कुछ पल मैं लड़खड़ाई ,समझ गई उसका व्यवहार।उस अलमस्त नृप-नीर आया उड़, कर सागर पार।। सहयोगी उसके … Continue reading »

जीवन, पानी का बुलबुला

जीवन में संचित सारे सुख की लम्बाई है बस एक पल। बारिश की बूंदों सी,पलक झपकते जाती मिट्टी में मिल।। अभी अभी जो जन्म लिया इसलिए  ही वह था रोया। इसलिए ही नये वस्त्र पाकर,तनिक ना वह खुश हो पाया।। स्मृति पटल ने  चित्र साझा किये, अनेक पिछले जीवन के। व्याकुल हुआ देख खुद को दौड़ते, हांफते, कराहते और रोते ।। आर्त हृदय से  उसने पुकार कर “लौटा लेने”का किया अनुरोध। पर उसका हो चुका था पदार्पण, सबसे बड़ा था अवरोध।। बन्द हो गये थे दरवाजे सब, क्रंदन कर समझाया खुद को। मां के स्पर्श ने ढांढस दिया उसके व्यथित मन … Continue reading »जीवन, पानी का बुलबुला

“मेरी अपनी -हिंदी भाषा “

मंच को नमनमानसरोवर साहित्य अकादमीमानसरोवर ई बुक पत्रिका हेतु, मेरी रचनादिनांक -12.9.24विषय -“मेरी अपनी- हिंदी भाषा “मेरी अपनी हिंदी भाषा” हृदय से आभार है मेरी अपनी हिंदी भाषा को।सौहार्द जगाकर जोड़ जाती मेरे सबअपनों को।। दूर देश बसे बच्चों में घोल देती असीम मृदुलता।मिलाती हर समय सहेलियों को इसकी सहजता।। कोयल सा कोमल सुरीला होता इसका उच्चारण ।निर्जल व्रती को मिलता जैसे सूर्य उदय पर पारण। हर भाव सहज ही हो जाता है सबका अभिव्यक्त।भरती उत्साह हिंदी हममें, जितना शूरवीर को रक्त।। त्याग, करुणा, आत्मबल का हिंदी है प्रतीक।हर भाव की अभिव्यक्ति होती स्वभावत: सटीक।। करु मां को याद तो … Continue reading »“मेरी अपनी -हिंदी भाषा “

मंच को नमन ।महिला काव्य -मंच प. रांचीतिथि -२८.८ २४विषय -बतरसविधा- दोहाशीर्षक – बतरस “बतरस”

बतरस होता है तब ही रस भरा।जब मिलता है मन उमंग भरा।। लौटता जैसे है बचपन फिर से।मस्त बने गांव गली में फिरते।। कितने मनोहर सब नटखट से सीखते।चतुर राबडी की कई कथा है सुनाते।। हार नहीं वे किसी से मानते।बढ़ चढ़ कर सब शेखी बघारते।। झूठी सांची धटना को जोड़कर।नये नये तिलिस्म तीर वो मारते।। देने को मात वे कुछ भी कह जाते।तीरंदाजी में वे अर्जुन को हरा डालते। सपनों के ये व्यापारी,स्वप्निल दुनिया में जीते।अग्रज बस मुस्कुरा कर रह जाते। मौसी नानी जब थपकी दे देती।चौंक कर क्षणिक ,वे चुप हो जाते ।। उनको मिलने से ज्यादा बतरस … Continue reading »मंच को नमन ।महिला काव्य -मंच प. रांचीतिथि -२८.८ २४विषय -बतरसविधा- दोहाशीर्षक – बतरस “बतरस”

मनमोहन बाल रूप कान्हा का

मानसरोवर काव्य मंचदिनांक:२६अगस्त२०२४विषय: मनमोहन बाल रूप कान्हा काविधा: कविता “मनमोहन बाल रूप कान्हा का” बड़ा ही मनमोहक है, श्याम यह रूप तुम्हारा।चित को यूं ठंडा करता जैसे हो मेघ कजरारा।। इसमें भरी चंचलता ने मोहा है संसार सारा।सांवरा तेरा रूप बना रौशनी भरा ध्रुव तारा।। तेरी एक झलक पाने, गोकुल हर पल राह निहारा।“छछिया भर छाछ”देकर,देखतीं गोपी नृत्य तुम्हारा।। मटकी उनकी फोड़ कर,चहकता चेहरा तुम्हारा ।मैया से करती शिकायत,साथ बुलाती तुम्हे दोबारा।। उदास सारा वृंदावन करके,क्यों चला गया यशोदा लाला।बह रही नदियां, उनके व्याकुल हृदय की धारा।। नंद यशोदा का है तू नंदन,ओ श्रीराधा का प्यारा।आस लगाये बैठा है जग,कब … Continue reading »मनमोहन बाल रूप कान्हा का

मैंने हंसना सीखा है

खिले पुष्पों को देख मैंने सीखा उनसे नई बात। छोड़ अपेक्षा, डालों को देना अमित चाहत।। किसलय से लेकर रक्त -रंग,दे देना उसको मात। वह रह जाते हरित, फूल सजते रंग भरी पांत।। गिनते नहीं कुसुम कहां खिले, बंजर या बरसात । पंखुरी की नस मे सजाते रेशमी धागा कात।। उनके बीच फिर नित नूतन  होती श्रृगारी बात। आ जाती चुपके से तब ही, बिदा होने की रात।। कल तक जहां खड़ी थीं सब, लिए सौंदर्य सौगात। रंगविहीन निर्जीव हुई, किया मृत्यु ने जो आघात ।। फिर भी वैसे ही बनी थी उसकी निस्पृह मुस्कान । देख उन्हें,मैंने भी तबसे … Continue reading »मैंने हंसना सीखा है

रोको ना मुझे

बह जाने दो मुझे, अब जिधर मन चाहता है। रोको ना आज मुझे, यही आज जी चाहता है ।। बेगानी हवायें खींच रही,मन दिशा चाहता है। नये सावन की टपकती बूंदें पीना चाहता है।। पूछो ना मुझसे कुछ,कारण ना कहो बताने को।रोको ना मुझे,पहले जरा स्वाद उनका ले लेने दो। देखा था मैंने पत्तों से पेड़ों को इनका पारण करते। अनगिनत बूंदों से जड़ों को पाताल तक सींचते।। उन्हीं बादलों को नजदीक से आज चूम लेने दो । वो पराये सही,पल भर को अपना बना लेने दो। क्या पता,ये हवाएं कब रंग बदल लें अपना ये उजाला ये सूरज छोड़ … Continue reading »रोको ना मुझे