रहे गई है कुछ कमी
नित करती हूं मैं नियम अनेक फिर भी पाती नहीं तुम्हे देख। मेरे कान्हा करती हूं क्या ग़लती, व्याकुल यूं क्यों होकर मैं फिरती? कहो तुम्हारे वृन्दावन में ऐसा क्या, गोपाल बने मटकते वन में जहां? माना अच्छा ना था भोग हमारा पर अब तो हैं मेवा मिश्री भरा! रखती मैं तुम्हारी सेवा में वह सब, कृपा से तुम्हारी मेरे पास है अब। हां, ध्यान नहीं लगा पाती मैं ज्यादा भूख पीछे से पकड़ लेती मन सादा। तुम से हटकर, भोजन में मन है बसता शायद तू भी प्रेम-कृपा नहीं है करता! चाहती हर पल मैं,तेरा ही दर्शन करना, …