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मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

हो रहा मानव विकराल, लेकर अपनी भूख को। भूल गया है वह नैतिकता की सारी चौखट को।। दारू और व्यसन को खरीदा, देकर उसने ईमान। स्वदेश-सुखद-भविष्य का किया स्वयं देहावसान।। समाज को  बढ़ते देख निघृष्ट अंधेरे दिशा  में ऐसे। घिरी निराशा से,मैं उकताने लगी हूं ऐसी जिंदगी से ।। पचहत्तर साल की स्वतंत्र विधा ने पाया है बस हमसे। लूट-खसोट, छीना-झपटी,अनन्याय,अत्याचार तरीके।। भूला  प्रताप, शिवाजी, अहिल्या रानीझांसी इतिहास । करते रहे मन से परतंत्र पराधीनता का कारागार वास।। अनभिज्ञ विरासत से,गाते रहे आक्रमणकारियों का दंश। भूला सगर, दिलीप,विक्रमादित्य,लाजपत, वल्लभ वंश।। रख कर स्वदेश स्वाभिमान ताक पर, तुच्छ अज्ञानता से। देख सामाजिक … Continue reading »मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

मौन

तेरी खामोशी में पा लेती हूं मैं अपने को, सुनती हूं वाचाल उन दबी इच्छाओं को! हुए बोल नहीं जिनके उच्चारित  लेकिन , दृढ़ संकल्प का दिलाया तुमने मुझे यकीं! एक कवच पारदर्शी है बन जाता तुमसे , शब्दहीन अभिव्यक्ति पहुंचती आगे सबके! तू शांत होकर भी, ज्वालामुखी सी दीखती, ऐ मौन,तू है मेरी निशब्द प्रेरणा की अनुभूति !

परेशानी

किसकी बात करें,किसको हम भूलें पेशानी पर छाई रहती सबकी लकीरें, हटा सकते नहीं हम सम्बन्ध का जाल मन के हर कोने ने रखा इनको पाल। किसी का आना हो,किसी का जाना अपेक्षित परिणाम की जगती है वासना शब्द के जाल बन जाते श्वासो पर फन्दे, माथे पर बूंदें उभरती हैं जब वो हैं गूंजते! सुलझा सकते नहीं इन्हें, अनेक गांठ डालते, इच्छाओं की फरियाद के साथ घुटते रहते ! 23.5.24

मैं उकताने लगी हूं

मैं,बार बार इस मन की पुकार सुनकर, हर पल इसकी तीव्रता पर पहरा देकर, हारी,इसको बांधने का अथक प्रयत्न कर, जीत जाता है यह हर प्रयास को लांघ कर ! पंख फैला उड़ जाता है मुझसे आंख चुरा कर, हाथों की पकड़ से निकलता फिसल कर ! रुकता नहीं ,कितना भी चाहूं बस में करना, इसे अच्छा लगता है अपनी मनमानी दिखाना! समझ गई हूं अब मैं इसकी अजीब हरकतों को यह रहता सदा तैनात मेरी शांति भंग कर ने को! सहते सहते इसके  नखड़े अब, मैं उकता गई हूं , इससे छुड़ाऊं पल्ला कैसे,समझ नहीं पाती हूं !

बेसन के लड्डू

घर का माहौल मिला जुला सा था। दिल्ली  में इलाज के पश्चात,शुभा की मां एक रोज पहले घर वापस आ गई थीं। देखने में वे स्वस्थ दिख रही थी।सब आश्वस्त थे।किंतु डाक्टर  के अनुसार,किडनी से जुड़े इलाज की प्रक्रिया जारी रखनी थी। रक्त आधान पिछले एक महीने से सफलता पूर्वक दिल्ली में चल रहा था। शुभा ,एक निजी कालेज में सहायक प्रोफेसर थी।उसे अपने काम से कोई शिकायत ना थी।बस जब भी छुट्टी लेने की बात आती तो वह परेशान हो जाती। इस बार भी वह बहुत अनुरोध से एक रोज की छुट्टी लेकर मां को देखने आई। शनिवार और … Continue reading »बेसन के लड्डू

मजदूर

चौराहे पर गाड़ी हमारी रुकी हुई थी हम अंदर बैठे, सपरिवार ठंडी हवा ले रही थीं खड़े ट्रक पर हमारे भवन की गिट्टी लदी थी उस पर एक मज़दूरिन,बदहवास पड़ी थी! “मई महीने की धूप फिर भी ऐसी नींद! अजब रचना है , गिट्टी भी नहीं जाती बींध!” मेरी बगल में बैठे मेरे पति ने सहसा टोका मैंने उसको देखा और अपनी स्थिति भांपा! धात्री-तन से चिपका था एक नन्हा शिशु आश्वस्त,   उसका विश्वास कर रहा था मेरे अहं को ध्वस्त ! ईश्वरीय विविधता पर, मैं शब्द विहीन थी मूक! समझ ना पाई सहानुभूति दिखाऊ या करूं दु:ख? चौराहे … Continue reading »मजदूर

नृत्य

नभ पर बैठे गुरु, दे रहे संकल्प की थाप , भूल तत्व चेतना सत्य,नांच रहे हम-आप! समझे इस शरीर, इसके रिश्तों को अपना, मस्त किया माया ने,भूल गए क्या था करना! हारमोनियम स्वरों सी,जगी असंख्य इच्छायें, तबले की थाप सी, इंगित हुईं प्रबल इच्छायें! फिर कैसा नृत्य किया मानव ने कैसे मैं बताऊं ? भूला वह लय ताल सब,उसको क्या  याद दिलाऊ? शरीर को जो सबकुछ समझे, उस कामी को क्या समझाऊं? सफलता का सरताज पहन,उसने बदलना चाहा राग , अचानक हुआ सरगम बंद, अधूरी कथा बन गई खाक! चौरासी पार कर आते हैं हम जगत में, भरने को कर्जा, माध्यम … Continue reading »नृत्य

जीने लगे हैं अब

कहना है उनका एक बहुत ही पुराना लेकर आता है समय नित नूतन बहाना कभी टूट गया था जो मेरा सपना पुराना आज फिर जिंदा हो गया है वो याराना! हाथ थामने की करने लगा है जिद अब झटक कर दामन मेरा,चला गया था तब रख कर उंगली चुप कर रहा मेरे लब, जीने को कह रहा ,जब छूट गई उम्मीदें सब! सोचती हूं,ये जो बाकी हैं सांसें मेरी कर दूं तेरे हवाले,बन जाऊं तुम्हारी मिल जायें शायद वो मंजिल हमारी जीने लगे हैं अब फिर,कसम आपकी!

चुनाव

                      “चुनाव “ मौसम पूर्वानुमान भी छूट रहा है  बहुत पीछे, नेता के भाषण प्रतिस्पर्धी फरीश्त बिछा रहे । रिझाने को वादा,आसमान ज़मीं पर लाने का करते, असम्भव को बातों ही बातों में पूरा कर जाते ! क्यों भूलते हैं षडयंत्रकारी!आया है अब युग राम का! असत्य हटा कर अब सर्वत्र “आयुध “हीआसीन होगा! आत्म-जागरण करेगी सरयू- मंदाकिनी- गंगा धारा! योगी-सुमति सिद्ध करेंगे महत्व चित्रकूट तीर्थ का! चंचल  बहुत आज विशाल सरल सगर-जनमानस, अचंभित मानव ढूंढ़ रहा अपने राम का दिशानिर्देश ! व्याकुल भारती खोज रहे तट सनातन धर्म स्वदेश ! हे विश्व-रचयिता त्राण दो!सुलझाओ यह पशोपेश! यह चुनाव बहुत … Continue reading »चुनाव

चुनाव

मौसम पूर्वानुमान भी छूटता है पीछे, नेता के भाषण जब फरीश्त बिछाते। रिझाने को,आसमान ज़मीं पर लाते, असम्भव को बातों में पूरा कर जाते ! भूल जाते हैं, आया है अब युग राम का! असत्य हटा कर अब सत्य हीआसीन होगा! आत्म-जागरण करेगी सरयू मंदाकिनी गंगा योगी-सुमति सिद्ध करेंगे महत्व चित्रकूट का! चंचल आज विशाल सरल सगर-जनमानस, अचंभित मानव ढूंढ़  रहा राम दिशानिर्देश ! व्याकुल भारती खोज रहे सनातन धर्म स्वदेश ! हे विश्व-रचयिता त्राण दो,सुलझाओ पशोपेश! है  चुनाव बहुत विशाल,भरत-संतान परीक्षा घड़ी ! कंस-रावण-दुर्योधन नाश की बजे ऐसी मंगल घंटी! आयें बार बार राम पिलाने भारत को अमृत घुटी! … Continue reading »चुनाव