मेरा घर,मेरा सपना

जाने क्या रोश है उनको,मेरे घर के वजूद से, बात बात मे उसे मिटा देने का जिक्र है करते। न बंधा उससे,उनकी कमाई का हिस्सा कोई, फिर भी समेटने की जिद करताहै हर कोई। “खरीदना है क्या?”सोचती हू पूछा कभी मै उनसे, रोक लेती हू ज़बान कि बेवजह बात न बढ जाये। खीजता है कभी मन बहुत,होती है कुंठित भावनाये, उमंग लेकर अनेक खडी किया था यह इमारत क्यो सबको है व्याकुलता,मिट जाए इसकी हसरत। है नही मोल शायद आखों में ,हमारे सपनो का तिल तिल जोड कर ,हमने मेहनत से खडा किया था। आज भी याद है, दौड धूप,”वो … Continue reading »मेरा घर,मेरा सपना