“मन को पत्र “

तुझको समझाऊ कैसे रे मन ,तू मेरा कैसा मीत, परिंदों की उड़ान,श्रावण समीर या है गौरैया गीत ? उड़ा कर साथ कभी ले चलते मुझको, इंद्रधनुष को छूने, घर के छत से बहुत ऊपर खुलते झरोखे जिसके झीने। बिना रोक टोक के चलतीं जहां, चारों दिशाओं से हवाएं, चमकती है चांदनी जहां से, और टपकती ओस की बूंदें। बिजली की धड़कन में छुपा स्वाति का घर है जहां पर। भींच कर बाहों में, सीने से लगा,भर लेता,अंक  अपने समाकर! लड़ियां जुगनू की लटकी है जहां बहार के मण्डप पर। तू उमंगित करता मुझको आस-सुवासित जयमाल पहनाकर । मनमौजी तू,,चल देता … Continue reading »           “मन को पत्र “

रे मन

रे मन,तू ही तो है इक मेरा है अपनातुझमें बसे कान्हा, अनमोल जीवन का सपना! सुनता है इक तू ही तो,अनबोले मेरे बैन,रक्षित तुझमें, मेरे हर भाव, विलक्षण तेरे नयन! बन कर मीत अनन्य, करता है नित नूतन बात,सहलाते सद्भाव जैसे तेरे मीठे हाथ! रिक्त मेरे हर पल को मधु-कल्पना से है भरता,नव पथ पर सम्भल कर,चलना तू सिखाता। नश्तर जब करते आहत तो बन साथी सहलाता,दुखते हृदय तारों को,कोमल राग सुनाता । रिसते कितने घावों को तूने है सम्भाला,मोहन की बंसी बन, जीवन में अमृत है घोला। उमड़ती बेचैनी को,धैर्य सेतूने ही तो है धो डाला,लिख नई कलम से … Continue reading »रे मन