मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से

हो रहा मानव विकराल, लेकर अपनी भूख को। भूल गया है वह नैतिकता की सारी चौखट को।। दारू और व्यसन को खरीदा, देकर उसने ईमान। स्वदेश-सुखद-भविष्य का किया स्वयं देहावसान।। समाज को  बढ़ते देख निघृष्ट अंधेरे दिशा  में ऐसे। घिरी निराशा से,मैं उकताने लगी हूं ऐसी जिंदगी से ।। पचहत्तर साल की स्वतंत्र विधा ने पाया है बस हमसे। लूट-खसोट, छीना-झपटी,अनन्याय,अत्याचार तरीके।। भूला  प्रताप, शिवाजी, अहिल्या रानीझांसी इतिहास । करते रहे मन से परतंत्र पराधीनता का कारागार वास।। अनभिज्ञ विरासत से,गाते रहे आक्रमणकारियों का दंश। भूला सगर, दिलीप,विक्रमादित्य,लाजपत, वल्लभ वंश।। रख कर स्वदेश स्वाभिमान ताक पर, तुच्छ अज्ञानता से। देख सामाजिक … Continue reading »मैं उकताने लगी हूं जिंदगी से